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Writer's pictureDharmraj

अतिरेक आवाहन



फूलों का अतिरेक

आकाश में सुंदरता गूथ रहा है

नदिया का अतिरेक न जाने कितने कंठों को सींच रहा है

पंछियों का अतिरेक उपवन के निविड़ मौन में

गीत घोल रहा है

ओ हतभागी मानुस तेरा अतिरेक कहाँ है

सूरज का अतिरेक

साँझ में अनगिनत रंग भरे जाता है

माटी का अतिरेक

अनबोई घास हो कि बोई फसल

बिना चुने लहराता जा रहा है

वृक्षों का अतिरेक

पके फलों से मिठास उलीच रहा है

ओ हतभागी मानुस तेरा अतिरेक कहाँ है

ऊँचे उठते पहाड़ों के अतिरेक ने

बादलों का रास्ता छेक

झूम बारिश भेजी है

चंदन की डाली ने अपनी अतिरेक गाथा

ख़ुशबू से

हवाओं में पिरो दी है

धरा ने मौसम की शीतल अँगड़ाई से

अतिरेक की पाती भेजी है

पर ओ हतभागी मानुस

चहुँओर अबाध उमड़ते घुमड़ते

अतिरेक के इस महोत्सव में

तेरी साझेदारी कहाँ है

ओ हतभागी मानुस

कहाँ तूने सुखा दी वह करुणा बदरी

जो कभी किसी मानुस से अतिरेक होकर छाई थी

कहाँ बुझा दी वह अपने दिए होने की लौ

जो तुझमें

अतिरेक होकर जल आई थी

कहाँ खो दी मुदिता की वह अजस्र धारा

जो भीतर तेरी सीमाओं की दीवार को तोड़

फूट आई थी

ओ हतभागी मानुस

इतनी विपदाओं पर इतने खोखले हो चुके जीवन पर

अब तो अपने बड़भागीपन को पहचान

ओ बड़भागी मानुस

अपने अतिरेक का आवाहन कर

ओ बड़भागी मानुस

अपने अतिरेक का आवाहन कर

ओ बड़भागी मानुस

अपने अतिरेक का आवाहन कर

धर्मराज

27 June 2022


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