यह जो अबाध उमड़ पड़ा है
यह जो अशेष बरस पड़ा है
उसके लिए व्यक्ति हो कि परिस्थिति
जो भी जैसे भी कारण बन पड़ा है
उसके प्रति
अनुगृहीत हूँ
किसी ने सदा के लिए अंतरतम हृदय के द्वार खोले
किसी ने बसाकर निकाला
बहुत हैं जिन्होंने न कभी द्वार खोले
न ही कभी हृदय से निकाला
जो हुआ जैसा भी हुआ उससे
वह जो अपने होने का आँगन मिला
अनुगृहीत हूँ
किसी ने भीड़ में एक नज़र में पहचाना
किसी ने सम्मुख से बिसारा
बहुत हैं जिन्होंने न कभी पहचाना
न ही बिसारा
जो भी हुआ जैसा भी हुआ उससे
वह जो अपनी ओर नज़र फिरी
अनुगृहीत हूँ
किसी ने हाथ थामा
किसी ने ठोकर से गिराया
बहुत हैं जिन्होंने न कभी हाथ थामा
न कभी गिराया
जो भी हुआ जैसा भी हुआ उससे
वह जो सहारे की आस गिरी
अनुगृहीत हूँ
किसी की जीवन लीला में
मैं पात्र बना
कोई मेरी के पात्र बने
ऐसी बहुत लीलाएँ रही
जिनका मंचन ही मुझसे अछूता रहा
जो भी हुआ जैसा भी हुआ उससे
यह जो लीला मंचन पर दृष्टि गड़ी
अनुग्रहीत हूँ
कितनी राहें दोराहे चौराहे मुझसे गुजरे
कितनों पर मैं गुजरा
बहुत सी राहें दोराहे चौराहे
मुझसे बचकर निकल गए
और मैं उनसे
जो भी हो जैसा भी हो उससे
यह जो राह अपनी ओर मुड़ी
अनुगृहीत हूँ
कभी कभी तो जिसने मिटकर प्रेम किया
उसने ही मिटाकर घृणा की
प्रेम हो कि घृणा
माथे से लगाकर उनसे
जो पार निकल सका
अनुगृहीत हूँ
धर्मराज
05/02/2021
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