प्रेयसी द्वार पर है
कदाचित उसके पावों की महावर
हाथों की मेहंदी
और बालों में गुथे
बेला के फूलों की गँध से पहले ही
उसके अतल गहराते मौन समर्पण ने
मुझे ख़बर कर दी है
मैं लपककर द्वार पर पहुँचता हूँ
साँकल हाथ में ले ली है
किवाड़ के उस पार वह है
इस पार मैं
पर यह क्या
जैसे मूर्छित सा मैं जाग जाता हूँ
खोलने से पहले वापस लौट आता हूँ
नहीं नहीं यह प्रेयसी नहीं है
यह तो मेरा ही रचा
मेरा ही बहु अभीप्सित छद्म रूप
सज सँवर आया है
भला जब तक मैं हूँ
प्रेयसी आ कैसे सकती है
प्रेम विरह की यात्रा ने
इतना बोध तो हृदयंगम कर दिया है
कि प्रेमी युगल कभी मिलते नहीं हैं
प्रेम कभी मिलन में पूर्ण ही नहीं होता
मिलता सा दिखता प्रेम
सिर्फ़ असंवेदना सघन करता है
या फिर युगल मध्य की दीवार को
मज़बूत और पारदर्शी कर देता है
दो कभी एक हो ही नहीं सकते
हाँ एक दूजे को देख
मिलन की अदम्य प्यास में
एक एक शून्य हो सकते हैं
वस्तुतः प्रेम सिर्फ़ शून्य में ही पूर्ण होता है
फिर यह किसकी महावर है
किसकी मेहंदी है
किसके बालों में गुथे फूलों की मादक गंध
और किसकी ओर से गहराते
मौन समर्पण की
मुझको पुकार आती ही जाती रही है
ख़ैर अवसर पाकर
उस चुपचाप आती महकती पुकार में
मैं स्वयं को विसर्जित कर देता हूँ
अरे! यह क्या
भीतर कोई प्रेमी नहीं है
बाहर भी कोई प्रेयसी नहीं है
भीतर बाहर जैसा भी कुछ नहीं है
और वह द्वार वह कपाट कहाँ गया
वह आती पुकार वह मैं कहाँ गया
क्या यह सब बस एक
खुद का ही रचा प्रपंच था
अहो!
यह बिना ऋषि के
कौन गीत
कौन ऋचाएँ गूथे चला जाता है
यह अखंड क्या है
जिस पर बाग में ढाक के फूल खिले हैं
जिनसे अपने आप उमड़कर रिसता हुआ लाल रंग
महावर सा महकता जाता है
वन में बानरों की चंचलता से
मेहंदी के रगड़ खाए पात से
और मंदराचल से क्या बेला के सुकुमार फूलों का सुवास
अपने आप शीतल पवन संग
बहा चला आता है
प्रेमी कहीं नहीं है
प्रेयसी कहीं नहीं है
फिर भी प्रेम और उसका महारास
उसका चहुँओर घटता महोत्सव
कैसे ब्रम्ह सा बढ़ता चला जाता है
आह! यह सब गायन गीत है
या यह है किसी मिटे ऋषि की ऋचा
इसके आदि का नहीं पता
अंत का नहीं पता
बस मेरे मिटने में जुड़े कुछ छंद हैं
जो इस अशेष जीवंत काव्य में जुड़े जाते हैं
जो इस अशेष जीवंत काव्य में जुड़े जाते हैं
धर्मराज
03 November 2022
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