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असम्भव लिपि

Writer's picture: DharmrajDharmraj



प्रेमी रात्रि में भी उठ उठकर

नीम के पेड़ से टँगी पत्र पेटिका झाँक आता था

रूठकर गई प्रेयसी की कभी तो खबर आएगी

उसे तो सूखे पत्तों की खड़क भी डाकिया के पाँवों की आहट लगती थी

दिवस मास वर्ष बीतते जाते थे प्रेमी प्रेयसी के पत्रों की प्रतीक्षा में

सारी सम्भव लिपियों को सीखता जाता था

प्रत्याशा में कि प्रेयसी हर सम्भव असम्भव लिपि और भाषा में कुशल है

न जाने किस भाषा में पत्र लिख भेजे

प्रेमी सारी सम्भव लिपियाँ सीख चुका था

असम्भव लिपि भर शेष थी

जिसका ककहरा भी वह अथक परिश्रम कर सीख न सका था

थका माँदा उस रात्रि वह

असम्भव लिपि सीखने की कोशिश में द्वार बंद कर

कच्ची फ़र्श पर ही गाल धर सो गया


मध्य रात्रि के थोड़ा ही बीतने पर

उसकी तेज हिचकी के साथ आँख खुली

जैसे उसकी खबर आ ही गई

लपककर हर बार की तरह झटके से उसने द्वार खोला

बाहर आ पत्र पेटिका टटोली

पर उसके हाथ हमेशा की तरह ख़ाली ही निकले

निराशा के ठोस भाव लिए

जैसे ही वह वापस द्वार की ओर मुड़ा

उसने मधुमालती की लता पर

पँचमी के चंद्रमा की किरणों को झिलमिलाता देखा

आश्चर्य था

उसे उतरती चंद्ररश्मियों पर प्रेयसी की मुस्कुराहट के अक्षर अक्षर

शब्द शब्द

सहजता से पढ़ने में आ रहे थे

आँखें मींच उसने पुनः आम के कोटर की ओर देखा

वहाँ बैठे उल्लू की निश्चल आँखों पर लिखी

प्रेयसी की निर्निमेष दृष्टि पढ़ ली

वह तो फूला न समाया

उसने अनजाने अनायास ही असम्भव लिपि पढ़ना सीख लिया क्या

साथ ही वह निःस्तब्ध था कि

आज ही लिपि सीखी आज ही प्रेयसी की पातियाँ भी आने लगी


प्रेयसी का संदेश

——————-

असम्भव लिपि पढ़ने की कला में सहज ही उसने स्वयं को पारंगत पा

देखा कि

प्रेयसी के संदेश निरंतर आते ही जाते हैं

चारों तरफ़

उसकी पातियाँ बिखरी हुई हैं

कितने ही पत्र उसके पुराने पड़ अपनी लिखावट भी खो चुके हैं

अरे! तो क्या प्रेयसी सदा से ही संदेश भेजती जाती थी

आश्चर्यचकित अचेतन से चेतन तक वह तो

हज़ार करवटें एक साथ ले उठ बैठा

उसने प्रेयसी के पुरातन से पुरातन प्रणय संदेशों को भी

एक ही दृष्टि में पढ़ लिया

आतुर वह नवीनतम संदेशों को उनके लेखन के साथ ही बाँचने लगा


छत पर फैली बोगनवेलिया के सूखे फूल जैसे ही माथे पर झरे

उसने पढ़ लिया

प्रेयसी ने मस्तक पर चुम्बन भेजा है

हल्की हवा का झोंका पीठ पर अटक जब दोनों बगलों से गुजरा

उसने पढ़ा प्रेयसी ने पीछे से आलिंगन लिखा

नथुनों से प्रवेश करती रातरानी के फूलों की सकुचाती गंध से

उसने प्रेयसी की ढंग ढंग की उपेक्षा से अपनी ओर

ध्यान आकर्षित कराने की कला पढ़ी

चाँदनी में पीपल के नाचते पत्तों पर उसने प्रेयसी का सहज नृत्य पढ़ा

भोर में कोयल के गान से उसने प्रेयसी का मधुर कंठ पढ़ा


फिर तो वह हर कण में हर क्षण में प्रेयसी को ही पढ़ने में डूब रहा

सुबह उसने सूरज की पहली किरणों में

प्रेयसी की आँखें पढ़ी

नदी की मंथर मौजों में प्रेयसी की धीमी धीमी चाल पढ़ी

तुलसी शहद की चाय में उसने प्रेयसी का

गर्म तीखा कसैला मीठा कड़वा स्वाद

अलग अलग और एक साथ पढ़ा

प्रेयसी अपने होने को बिना चुके लिखती ही जाती थी

इस लेखन पाठन की अपूर्व घटना में

प्रेमी को प्रेयसी की उपस्थिति स्वयं से भी सघन होती जाती थी


प्रेमी ने अपने मन को प्रेयसी पढ़ा

मन की चंचलता में उसने प्रेयसी की तिरछी पैनी आड़ी सीधी सब चालें साथ ही उसकी गहराती चुप्पी पढ़ी

उसने अपना हृदय पढ़ा

उमड़ उमड़ कर लुकते छिपते बरसते श्रृंगार करुण रौद्र वीभत्स शांत सब रस पढ़े

इन सब के पार

उसने स्वयं का असंग निर्विकार होना पढ़ा

जैसे जैसे प्रेमी असम्भव लिपि में प्रेयसी को उसके संदेशों में पढ़ता गया

प्रेयसी के संदेशों का चहुँ ओर से उमड़ता महासागर

नमक की डली की भाँति उसे स्वयं में घोलता गया

धीमे धीमे प्रेमी मिट ही गया

अपने संदेशों से व्यक्त

अव्यक्त अव्याख्य प्रेयसी ही शेष रही


धर्मराज

05/01/2021


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1 Comment


Smruti Vaghela
Smruti Vaghela
Aug 27, 2021

खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।

जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।

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