करुणा के उस द्वार पर जब मैं पहुँचा
मुझे एक पोथी पढ़ने के लिए मिली
लाखों लाखों साल के अतीत
लाखों लाखों साल के भविष्य से
जर्जर पुरानी हो चुकी पोथी को जब मैंने खोला
न वह अतीत के प्रारम्भ से खुली
न भविष्य के अंत से
वह ठीक वर्तमान के मध्य से खुली
वहाँ मैंने खुद को ही गाथा में लिखा देखा
जन्मों जन्मों में मैं जो था
जो जिया था जैसे जिया था
जन्मों जन्मों में जो होने वाला था
जो जीने वाला था जैसा जीने वाला था
वह सब वहाँ शब्द शब्द अक्षर अक्षर अंकित था
स्वयं को जानने के अदम्य कौतूहल में
मैंने उसे पढ़ना शुरू किया
मैंने एक एक अध्याय पढ़े
एक एक अनुच्छेद एक एक वाक्य
एक एक शब्द एक एक अक्षर पढ़े
विचार की हर पंक्ति को बड़े गौर से पढ़ा
दुःख की सुख की आशा निराशा की जीवन और मृत्यु की
हर रेखा हर छाया को
सम्बन्धों की हर पीड़ा को हर टीस को
भावों की सारी गहराई को जस का तस पढ़ा
जैसे जैसे मैं अपनी गाथा पढ़ता गया
मेरा अतीत भविष्य और उन में पसरा
मैं मेरे वर्तमान में सिमटता गया
मेरे प्रचंड कौतुहल से एक शब्द एक अक्षर भी बिना पढ़े न छूटे
उधर मेरी गाथा पढ़ते हुए सिमटती गई
इधर मैं खुद को पढ़ते हुए मिटता गया
न पढ़ने को एक रेखा छूटी
न पढ़ने वाले की छाया तक छूटी
एक झलक में पढ़ी गई शब्दातीत कविता की तरह
आतम पोथी बाँचकर
वर्तमान के कोरे पन्नों में बची पोथी के
आख़िरी पन्ने के गलने
आख़िरी शब्द के सिमटने
मेरे पूरी तरह मिटने से पहले
न जाने क्यूँ मैं अनपढ़ों के बीच
वह आतम पोथी बाँट रहा हूँ जो उनके पास पहले से है
धर्मराज
27/08/2021
अद्भुत अवलोकन, अद्भुत आलेखन और अद्भुत चित्रण🥰