
उहुँउ
नहीं नहीं इसका भावार्थ ‘नहीं’
नहीं है
उहुँउ का भावार्थ है नकार
नहीं तो हाँ या हूँ के विपरीत होता है
उहुँउ शुद्ध नकार है
उसका नकार जो है ही नहीं
यह ठीक वहाँ है जहाँ से
जो नहीं है उसकी ओर जीवन यात्रा बढ़ने लगती है
जीवन जो निसर्ग है
उससे फिसलने लगता है
वहाँ यह मौन संकेत गूँज उठता है
उहुँउ
खुद की चिल्ल पों में हम
ऐसे मशगूल हो जाते हैं कि
हमें हमारी धन्यता से हमारे प्रसाद से
खिसकने से थामने वाली
वह जो नैसर्गिक उहुँउ है
वह खो ही जाती है
कभी प्राणों में उतरते
नयनाभिराम पुष्प दर्शन के समय
जब हमारे हाथ फूल तोड़ने के लिए आगे बढ़ें
गौर से भीतर से सुनें तो सुनाई देगा
उहुँउ
कभी भोर जब वन से
पंछियों का मंजुल गान हमसे होकर गुज़र रहा हो
तब उसे मंजुगान कह कर शब्दों में खींचने से पहले
भीतर गूँज उठता है उहुँउ
प्रेमी का हाथ हाथ में हो
मिलन खिल रहा हो
तभी जब उसे सदा के लिए अपने दायरे में सँजोने की योजना
उस मिलन की खिलावट को कुचलने को आने लगे
तभी भीतर से मौन गूँज उठता है
उहुँउ
वैर की हर भूमि के निर्माण में
हिंसा घृणा चिंता ईर्ष्या लोभ मोह या क्रोध की
हर तैयारी में
जो भीतर सरक रही अपेक्षा निर्भरता दीनता दरिद्रता
को ढाँप लेने की कोशिश में जन्म लेती है
भीतर से नकार की ध्वनि आती है
उहुँउ
अशेष अकारण अनादि अनंत
प्रसाद से ओत प्रोत बह रहे जीवन में
जब भी मैं की भूमिका बनती है
जब भी कुछ होने या
बने रहने की प्रस्तावना बनती है
भीतर से स्वर गूँज उठता है
उहुँउ
सिर्फ़ फिसलन में यह स्वर गूँजता है
जब जीवन अपनी सहज
नैसर्गिक गति में बहता है तो
फिर बहता है
उसके लिए उहुँउ के विपरीत कोई स्वर नहीं गूँजता
जो सम्यक् है
वह बस उहुँउ से मुक्त है
धर्मराज
07 November 2022
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