तट पर घाट बना मैं उनकी बाट जोह रहा हूँ
जिन्होंने गाँव से विदा देते समय मुझसे कहा था
तुम चलो हम आते हैं
वह परदेसी गाँव वहाँ की सराय वहाँ ठहरे मुसाफ़िर
सबने मुझसे कहा था
उनका इस परदेस से मोहभंग हो चला है
वे भी नदी के उस पार अपने घर लौट जाना चाहते हैं
उनकी प्रतीक्षा में
भोर से साँझ हो चली
घाट की छोपकर पाटी गई माटी भी अब
लहरों के थपेड़ों में घुलने लगी है
अंतिम किरण डूबने से पहले
अब तो उस हवा के झोंके की आहट भी आने लगी है
जिस पर मुझे अपनी डोंगी के पाल खोलने ही होंगे
घाट से डोंगी पर पहला पाँव धरते
मुझे बड़ा अचरज हो रहा है
तो क्या उन्होंने जो दम भरा था
जो पार चलने को लालायित थे वह सब उनका उनके साथ किया धोखा था
क्या सच में कोई पार जाना ही नहीं चाहता था
गाँव के नाम पर बसे इस परदेसी मरघट के तिलिस्म में
वे दिनोदिन गहरे और गहरे दफ़्न होते जाएँगे
मैं करूँ तो क्या करूँ उन्हें पुकारते पुकारते मेरा गला भी बैठ चुका है
घाट से डोंगी पर दूसरा पाँव खींचने से पहले
घाट पर मैं अपने आँसुओं से लिख रहा हूँ
यह वही घाट है जहाँ से दूसरे तट पर अपने घर जाने के लिए
एक मुसाफ़िर ने अपनी डोंगी खोली थी
साथ ही इस नदी से प्रार्थना की है
वह अपनी लहरों से तब तक मेरी लिखावट न मिटाए
जब तक उस पार के लिए निकला कम से कम एक मुसाफ़िर
इस घाट पर आकर मेरा प्रस्थान न पढ़ ले..
- धर्मराज
19/10/2021

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