हृदय गुहा के पार
अपने पावन धाम से आकर
धन्य बेला में ध्यान प्रेयसी ने मेरा वरण किया
वरण कर मुझे घूँघट की ओट से निहारा
और धीमे से मुस्कुराई
ध्यान प्रेयसी से भाँवर घूमी फिर
प्रेयसी प्रेयसी तो रही ही
पूर्णांगिनी भी हो चली
ऐसी पूर्णांगिनी जो अंग अंग में व्याप्त है
फिर भी जिसने
मुझको सयानी प्रेयसी की भाँति पूरी मुक्ति सौंप रखी है
मैं हरजाई जब देह प्रेयसी से अनुरक्त हुआ
वह मुझमें अबाध मुक्ति के साथ चुपचाप उपस्थित रही
देह प्रेयसी के सखा और सखियों संग जब मैं ख़ुद को बिसरा बैठा
वह मेरी सुधि लिए बैठी रही
देह प्रेयसी ने जब अपने रंग दिखाए
जब वह अपने नाते रिश्तों संग किसी और के संग चली
मैंने बिछोह की पीड़ा में स्वयं को भीतर उपस्थित ध्यान प्रेयसी के
आलिंगन में पाया
वह पूर्णांगिनी ध्यान प्रेयसी जो अब तक मौन थी
धीमे से मुस्कुराई
चाहे वे मन के बदलते प्रकरण हों
चाहे वे उठते गिरते हाव भाव
हर बार जब हरजाई मैं उनके साथ बहा
ध्यान प्रेयसी ने बहने दिया
संग साथ वह मुझमें डोलती चली
फिर जब मैं लौटा
प्रेयसी ने भरकर आलिंगन किया
और धीमे से मुस्कुराई
यह उसकी महामुक्ति है
जब मैंने जहाँ जाना चाहा
चाहे वह रसातल का नर्क हो कि सातवाँ स्वर्ग जाने दिया
यह उससे अनबंधी अटूट डोर ऐसी है
जैसे छाया की होती है
उसके वस्तु से
पुनः मेरी इस बूझ पर ध्यान प्रेयसी ने अपने बाहुपाश को कसा
और धीमे से मुस्कुराई
धीमे धीमे अपने मुक्ति और प्रेम कौशल से
इस एकचारिणी ध्यान प्रेयसी ने मुझ बहुचारी को जीत लिया है
इस सतवन्ती के अतिरिक्त मेरा और कोई नहीं है
इस अमृता के बाहुपाश में मैं मृतवंत स्वयं का विसर्जन करता हुआ
धीमे धीमे उसे मुस्कुराता देख रहा हूँ
धर्मराज
12 March 2023
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