उस गीता को हृदय देना हो जो कभी कंठ से जूठी नहीं हुई
पढ़ना हो जो कभी किताबों की जिल्दों में बाँधी नहीं गई
जिसे अक्षरों में घेरकर शब्दों की साँकलें नहीं पहनाई गई
सुनना हो जो कभी कानों की दमघोटूँ अँधेरी सुरंग से नहीं गुज़री
जो मन के मैले पटल पर नहीं उभरी
तो चंचल नदी को अपना हृदय सौंप देना
अडोल चट्टान पर खुद को बिखेर देना
विराट आकाश को बुझते दिए को खिलते फूल को तिरते पत्तों को भोर की धूप को
अपना हृदय सौंप देना
ऐसे अनूठे गीत जो अनगिनत हृदयों से उमगे हैं
वे सीधे बहती नदियों में उड़ेल दिए गए हैं
वे चट्टानों के भारीपन में ढाल दिए गए हैं
वे आकाश के अनंत वितान में घोल दिए गए हैं
वे गीत बुझते दियों में बुझा दिए गए हैं
वे खिलते फूलों के झूमने में झुला दिए गए हैं
वे वृक्षों से उतरकर हवा में तिरते पत्तों में तिरा दिए गए हैं
वे गीत सुबह की मीठी धूप में सुखा दिए गए हैं
वे झींगुर की बोली में लयबद्ध कर दिए गए हैं
वे अबोध ललना की मुस्कान में गूँथ दिए गए हैं
वे तितली के परों की फड़कन में पिरो दिए गए हैं
यदि ऐसे अपना हृदय सौंप सके तो सम्पूर्ण अस्तित्व में पसरे गीतों से
डूबकर उतराया तुम्हारा हृदय जब वापस लौटेगा
अगेय गीतों से खिला हुआ आपूर रस से पगा
भीनी भीनी सुवास में डूबा नाचता हुआ तुम्हें समर्पित होगा
अस्तित्व को अकारण सौंपे उस हृदय ने नदी के प्रवाह से चरैवेति का गान पढ़ा होगा
अडोल चट्टानों से उसने निश्चल आत्मा के रहस्य गीत बूझे होंगे
आकाश के अनंत वितान से उसने शाश्वत सनातन छंद सोखे होंगे
बुझते दियों से उसमें निर्वाण का महारास अलंकृत हुआ होगा
दिए जब जले होंगे उसमें आत्म दीपो भव का सुर छिड़ा होगा
झूमते फूलों से उसमें ध्यान की रसनिमग्न दशा का लालित्य नाचा होगा
तिरते पत्तों से अहं ब्रम्हास्मि का मौन राग उमड़ा होगा
भोर की कुनकुनी धूप के सम्मुख हृदय के सूखते प्रमाद में
उसने साखी सबद रमैनी के व्यँग और उलटबाँसियाँ गुनी होंगी
गोधूलि की बेला में फैलती झींगुर की गूँज से उसने ओंकार के फूटते गीत सँजोए होंगे
ललना की मुस्कान में पद सोरठा चौपाई गुनगुनाए होंगे
तितली के परों की फड़कन में मोक्ष का अचूक मंत्र बाँचे होंगे
अस्तित्व में बिखरे इस रंग रंग के ढंग ढंग के गीतों के अर्क से गुजरा तुम्हारा परम पावन हृदय
स्वयं ही जीवंत गीत गीत गीता होगा
धर्मराज
08/09/2021
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