उस सुभोर
जब मैंने तुम्हें पहला प्रणाम भेजा था
शुभ्र बादलों के पटल पर उड़ते श्यामवर्णी पंछियों को निहारते
अपनी ही गोद के पत्थरों से गुजरती नदी के कलकल नाद को सुनते
बेला के फूलों से उड़ती गँध छकते मैंने
देर तक प्रतीक्षा की
कि तुम मेरे प्रणाम का कुछ तो उत्तर दोगे
निराश कुछ उत्तर न पाकर मैंने प्रत्याशा गिरा दी और लौट पड़ा
प्रत्याशा गिरते ही पाया कि उन्हीं गँध नाद और दर्शन से
मेरा सब दिशाओं से अभिनंदन हो रहा है
मेरा हृदय पात्र आपूर हो बह चला है
पल भर में ही
मनुष्य को मिल सकने वाले परम आशीष से मैं बड़भागी
कृतार्थ हुआ हूँ
आह! तब ध्यान आया
मेरी ही समझ ओछी थी
मैंने समझा कि मैंने तुम्हें प्रणाम भेजा है
पर वह तो तुम्हारे प्रणाम और आशीष का देर से दिया हुआ मेरा प्रत्युत्तर था
तुम युगों युगों से मुझे भरपूर प्रणाम और आशीष भेजते जाते थे
मैं मूर्छित अपने जुड़े हाथ की सीमा में प्रणाम
और सिर पर रखे हाथ को ही आशीष समझ पाता था
तुमने तो मुझे अनंत अनंत ढंगों से आशीष और प्रणाम भेजे हैं
सयास माँ की मिली गोद से मित्रों के आलिंगन से
और प्रेयसी के कोमल स्पर्श से तुमने प्रणाम भेजा था
अनायास अमराई की गँध से वृक्ष के नीचे मिले मीठे फल से
और नीलकंठ पंछी के दर्शन से तुमने मुझे आशीष भेजा था
अब मुझे साफ़ दिखता है वह जो वैरी होकर आया था
तुम ही चिकित्सक हो आए थे
जिस दुःख की मर्मांतक वेदना में मैंने तुमसे मुँह फेर लिया था
वह तुम्हारी शल्यक्रिया थी मुझे उस सम्यक् पथ पर लाने की
वह दुःख का आशीष ही था
जिससे मेरा परम कल्याण फलित हो रहा है
अब जब तुम
हर उगते सूर्य की किरणों से मुझे प्रणाम भेजते हो
मुझमें व्याप्त मुझे मेरी अलंघ्य रससिक्त महिमा का दर्शन होता है
और हर गोधूलि के समय मुझपर जब तुम्हारा अक्षय आशीष बरसता है
तुम्हारे ही आशीष से विभोर मैं
अपनी चितवन से स्वाँस के आवागमन से शब्द निशब्द से
तुम्हें प्रणाम भेज पाता हूँ
यह मुझसे तुम्हारा ही तुमको प्रणाम है
धर्मराज
18 July 2020
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