पहाड़ की चोटियों पर धूप पसरने लगी थी। हम लोग जिस चट्टान पर बैठकर नदी की निर्मल, अविरल धारा को निहार रहे थे, वह हमारे भीतर बह रहे विचारों, भावों की धारा से भिन्न नहीं थी।
हम नदी की धारा को निहारते हुए, जिस अविचल चट्टान पर बैठे थे, उसका भी खूब बोध बना हुआ था। इसी तरह हम जब बाहर निहारते हुए भीतर प्रवेश करते थे तो, विचारों भावों के निहारे जाने के साथ साथ जो उन्हें निहार रहा है, उसका भी बोध बना हुआ था।
सागर की लहरों की तरह इस भीतर बाहर के निहारे जाने में अद्भुत घटना घटती थी।
बाहर हमारे निहारने में हमारी आँखों और नदी की जलधारा के मध्य के अंतराल पर बोधपूर्वक दृष्टि पड़ते ही वह भले न मिटता हो लेकिन इस निहारने की पूर्ण कला में एक अद्वितीय सौंदर्य बोध नृत्य करने लगता था। वहीं भीतर जब विचारों और उन विचारों को निहारने वाले को देखा जाता, साथ ही विचारों और उसे देखने वाले के मध्य अंतराल को देखा जाता, तब एक अभूतपूर्व घटना घटती थी।
ऐसा पाया जाता था कि, देखने वाले और देखी जाने वाली अंतर्वस्तु के मध्य कोई विभाजन है ही नहीं। यह निहारना किसी ऐसे आयाम में पूर्ण होता था, जो अज्ञेय है। इस निहारने की कला को बड़ी कुशलता से चित्त ने सीख लिया था।
उन दोनों लोगों ने लगभग झगड़ते हुए चर्चा शुरू की। एक मित्र ने कहना शुरू किया कि, उन्हें ज्ञान से घृणा है। किसी भी तरह का ज्ञान जीने के लिए घातक है। सब धर्म, अध्यात्म शोषण करने के लिए धोखा देने के उपाय हैं। बिना किसी भी तरह के दर्शन के ज़िंदगी जैसी है, वैसी ही जी जानी चाहिए। जब दुःख आए दुःख झेल लो, जब सुख आए सुख भोग लो। इसमें दिमाग़ क्या लड़ाना।
उन्होंने अपनी बातों में यह भी जोड़ा कि, उन्हें गुरु शिष्य जैसी कोई स्थिति देखते ही अजीब सी खीझ होने लगती है और पूरे शरीर में आग जैसी भड़क जाती है। वह लगभग चीखते हुए बोल रही थी। उनकी पूरी भाव भंगिमा से क्रोध, घृणा, चिढ़, उन्माद जैसे न जाने कितने भाव उमड़ उमड़कर बाहर आ रहे थे। उनको इस बात का भी दम्भ था कि, वे अपना जीवन अकेले अपने दम पर बिता रही हैं। उन्हें इस बात की भी आश्वस्ति थी कि, अनेक गुरुओं और आध्यात्मिक शिक्षकों को उन्होंने पढ़ा है लेकिन सब व्यर्थ निकले। वे सब तरह से ज्ञान का खंडन कर रही थी। यद्यपि यह सब कहने दुहराने में उन्होंने उच्च कोटि के निषेधज्ञान के कौशल का प्रदर्शन किया।
दूसरे मित्र काफ़ी शालीन थे। उन्होंने पहले कुछ प्रतिरोध किया, फिर दूसरे मित्र का उग्र रूप देखकर चुप हो गए। वे अपने आध्यात्मिक गुरु को उद्घृत करना चाहते थे। उनके जीवन की चमत्कारिक घटनाओं को उभारकर प्रकट करना चाहते थे, जो वह न कर सके। यद्यपि उन्होंने भी बहुत सारे आध्यात्मिक गुरुओं की पुस्तकों का बारीकी से अध्ययन किया था, फिर भी वह जो अवलोकन की सच्ची क्रिया है, उससे चूके हुए से थे।
पहली तरह का अंधापन है, जब हम किसी ऐसी सम्भावना को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं, जो हमारे वर्तमान जीवन पर संदेह उठाती है। वर्तमान जीवन हमारा कितना भी दुःख से, पीड़ा से, संताप से भरा हुआ हो लेकिन हम उसे ही एक मात्र जीवन ढंग समझते हैं।
कैसा दुर्भाग्य है कि, घाव के, रोग के रूप में ही सही, हम जो हैं, उसको देखना नहीं चाहते हैं।
घसर पसर उसी पुराने सड़े-गले ढर्रे को जीने की हमारी आदत बहुत गहरी हो चुकी है.
हम खुद को जैसे हैं उसे देखने भर के बजाय अथाह दुःख की वेदना को भी जीना बेहतर समझते हैं।
यदि जीवन जैसा है वैसा ही ठीक है तो फिर हत्या, बलात्कार भी ठीक है। युद्ध भी ठीक है।
जो चारों ओर दुनिया में हो रहा है, सब ठीक है।
थोड़े थोड़े सुख के अनुभव भी तो हमें भिन्न भिन्न माध्यमों से होते ही रहते हैं न!
हमने ऐसे लोग तो देखे ही हैं, जिन्हें युद्धों के महाविनाश के पश्चात होने वाले स्त्रियों और अनाथ बच्चों के विलापों में आनंद आता था। वे सैनिकों के बूटों की आवाज़ और लपलपाती संगीनों को श्रेष्ठतम संगीत और दृश्य की तरह देखते थे।
गुरु से, श्रेयस सम्भावनाओं से इतनी चिढ़ क्यूँ है?
क्या यह इसलिए तो नहीं कि, यदि हम दुःख से मुक्त होने की सम्भावनाओं से अवगत हो जाएँगे, तो हमारे अपने जीवन ढंग पर गहरा प्रश्न चिन्ह लग जाएगा, जिससे हम किसी भी सूरत में बचना चाह रहे हैं?
जो स्वयं को देखने के लिए तत्पर हैं, निश्चित ही वह लोग दूसरे के सुझाव से, सहारे से, ज्ञान से मुक्त होने की बात भी करते हैं। उनके मुँह में यह शोभा भी देता है.
क्यूँकि जब वे दुःख से मुक्त जीवन की सम्भावना के लिए स्वयं का जस का तस अवलोकन कर रहे हैं, उस समय किसी भी तरह का सहारा अथवा सूचना का ज्ञान उस अवलोकन की शुद्धता को विकृत करता है। वह स्वयं को देखने की अपरिहार्यता को दूसरे के साथ परखकर उसके प्रति आभार प्रकट कर आगे निकल जाते हैं।
लेकिन वे जिन्होंने स्वयं की जीवन शैली पर कभी सवाल ही नहीं उठाया है, उनके लिए तो यह कुँए के मेढक का कुँए से बाहर की सम्भावना में जाने से बचने के लिए आत्मरक्षा का उपाय है। उनको शास्त्रों का, ज्ञान का, गुरु का खंडन और गहरे पतन की ओर ले जाता है। वे ज्ञान के विरोध का ज्ञान दीवाल के रूप में अपने चारों ओर खड़ी कर लेते हैं। जिन्होंने तिल भर भी अपनी ओर निगाह नहीं फेरी है, वे आत्मज्ञान के शास्त्र का कुशलता से प्रतिरोध करते हैं।
दूसरी तरह का अंधापन तब होता है जब हम लोग किसी पथप्रदर्शक का महिमामंडन करते हैं।
कोई पथप्रदर्शक यदि वह सचमुच ही रास्ते में गहरी दृष्टि रखता है, तो अपनी महिमा का कभी बखान नहीं चाहता। उसको बस सीधे रास्ते पर चलने चलाने में रुचि होती है। उसको तो यह आश्चर्य होता है कि, इतना सीधा सरल रास्ता सामने है, फिर भी हम उस पर न जाकर खाई खड्डों से जूझ रहे हैं।
कहीं ऐसा तो नहीं कि जब हम अपने रहनुमा की कही गई बातों को दुहराते हैं, हम हमारी जीवनशैली के हिसाब से घटित हुए चमत्कारों को उभारकर दिखाते हैं। तो उसके पीछे हमारी मंशा, खुद को और दूसरों को यह जताने की होती है कि, हम कितने महान रहनुमा के पीछे चल रहे हैं।
चिकित्सक की महता इस बात में नहीं निहित है कि उसने दृश्यों और देखने की कला की कितनी बातें की है, दृष्टिहीनों को देख पाने के लिए कितने उसने उपाय सुझाए हैं। चिकित्सक की महिमा इस बात से सिद्ध होती है कि उसके उपायों से हमारी आँखों का कितना उपचार हुआ है, हम स्वयं को देखने में कितने समर्थ हुए हैं।
विडम्बना यह है कि, बाहर का चिकित्सक तो हमारी बेहोशी में भी हमारा कुछ उपचार कर सकता है, लेकिन भीतर के अंधेपन के लिए वह केवल निदान कर सकता है.
उपचार तो हमें ही होश में आकर करना होगा, जो कि हम करना नहीं चाहते।
जागरण हमें सर्वाधिक कठिन और पीड़ादाई लगता है।
इसीलिए हम स्वयं को धोखा देने के लिए चिकित्सकों का गुणगान करते हैं। उनका जीवन चरित्र लिखते हैं, गाते हैं। उनके उपदेश दुहराते हैं। उससे हमें सांत्वना मिलती रहती है कि हम एक कुशल चिकित्सक के द्वार पर खड़े हैं। देर अबेर हमारी आँखों का उपचार होना ही है।
यह कभी नहीं होता, हो ही नहीं सकता। उपचार, या अभी होता है या कभी नहीं होता।
मुख्य रूप से यह उपरोक्त दो तरह के अंधेपन हैं, जो हमारा शातिर दिमाग़ खुद को देखे जाने से बचने के लिए अपनाता है। जीवन की सम्भावनाओं का अन्वेषण अपने आग्रहों को पक्ष या विपक्ष से हठपूर्वक पुष्ट करने में नहीं है। क्या होगा भला ऐसा करने से, हमारा दुःख तो नहीं मिट जाएगा न?
असल में दुःख से उबरने की सम्भावना का अन्वेषण करने से पहले, उसे महसूस करने के लिए थोड़ी सजगता चाहिए। हर किसी को दुःख महसूस नहीं होता है। हमारा जीवन इतनी यांत्रिकता में चलता है कि, दुःख का महासागर जीवन का अंग लगता है। जिसमें सुख के छोटे छोटे बबूले फूटते हैं।
जब तनिक सा भी बोध आ जाए कि दुःख है, तो क्या अनिवार्य रूप से उससे मुक्ति की आकांक्षा नहीं पैदा होती है?
साथ ही जीवन में गहराई से पैठी जिस संरचना से हम मुक्ति चाहते हैं, क्या उसे समझना अपरिहार्य नहीं हो जाता है?
हमारे जीवन में सम्बंध में द्वंद्व है, भय है, हिंसा है, अकेलापन है। क्या यह सब दुःख के ही भिन्न भिन्न चेहरे नहीं हैं, जिन्हें हमें समझना होगा?
विचार की अंतहीन दौड़ हमेशा चल रही है, उसे समझना होगा।
इसमें जो हमारे भीतर चल रहा है, उसके प्रति कोई हिक़ारत का भाव नहीं है।
यहाँ तक कि समझने, देखने की प्रक्रिया में उसे मिटाने का भाव भी नहीं है।
‘जो है’ उसे सबसे पहले जस का तस देखना होगा।
यह देखना स्वाभाविक कृत्य जैसा है, न कि हमारे ऊपर थोपा हुआ, जिसे हमें निभाना है।
जब हम किसी चुनौती को सामने देखते हैं, तो उससे निबटने के लिए स्वाभाविक रूप से हमारे अंदर क्षमता और रुचि पैदा हो जाती है।
जब हम जो है उसे देखने लगते हैं तो दूसरा प्रश्न पैदा होता है कि, यह कौन देख रहा है और जो देखा जा रहा है, उससे और देखने वाले के मध्य जो विभाजन है, उसकी प्रकृति क्या है।
यह दर्शन, ही अवलोकन की पूरी प्रक्रिया का निर्णायक मोड़ है तब जाकर अवलोकन पूर्णता की ओर बढ़ता है।
बिना देखने वाले को देखे जाने में लाए अवलोकन से कुछ तो जीवन में राहत मिल जाएगी, लेकिन यह समस्या को जड़ से नहीं समाप्त कर सकेगा। ऐसा भी हो सकता है कि, समस्या और भी घातक स्वरूप ले ले।
जो भी है उसे देखने के साथ यदि देखने वाले को और देखी जा रही अंतर्वस्तु के मध्य के विभाजन को भी देखा जा रहा है, तो अवलोकन एक तरफ़ जहाँ समस्या को आमूल उखाड़ फेंकता है वहीं वह जो समस्या और समाधान से निराला है, उसमें विधिवत प्रतिष्ठा करा देता है।
धर्मराज
19/08/2021
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