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Writer's pictureDharmraj

देखते ही देखते


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अमावस की रात्रि के

अंतिम पहर में

चंपा की कलियों ने आँखें खोली

देखा कि उसकी ही डाली पर उल्लुओं की क़तार बैठी उसे घूरे जाती है

उसकी शाखाओं पर रात से भी काले भयावह चमगादड़ों को

उल्टा लटककर कर्कश स्वर में चीखते पा सहमकर वह

अपनी खोल में वापस दुबक गई


आह! क्या यही जीवन है

मेरी अनछुई आत्मा की गंध को क्या यहीं बिखरना होगा

हाय! क्या मेरी कमनीय सुकोमलता इन्हीं अंधेरों की भेंट चढ़ेगी

मेरे जीवन का कुल सार

क्या इन्हीं चीख़ों और भावहीन आँखों के बीच में सिमट जाना भर है

शोकसंतप्त उस कली की जिजीविषा जाती रही


अनायास किसी आहट पर

पुनः उसके आशा निराशा से छूटे नयन खुले

उसने अपने वृक्ष की छाँव और तारों के टिमटिमाते प्रकाश में

एक अति साधारण मनुष्य को बैठा देखा

जिसके अंदर सोच विचार के महासागर में

विक्षिप्त हो चुके सैलाब उठते गिरते ही जाते थे

निराशा क्रोध आसक्ति घृणा विराग जैसे

अनगिनत असंगत अधकचरे भावों से मथता उसका हृदय

ऐसा हो चला था मानो

छोटे से कीचड़ हो चुके सरोवर से होकर महाकाय हाथी लोटते हुए आते जाते हों


कली अपनी दशा बिसार

उसे बड़े कौतुक से निहारने लगी

उसने देखा वह मनुष्य जैसे बैठा वैसे बैठा ही रहा

उसने अपने विचारों को न रोका न चलने को कहा

न उसने घृणा से घृणा की न प्रेम से प्रेम

न उसने काम को विदा कहा

न राम को स्वागत

न उसने भय को दबाया न निर्भय को उभारा

न उसने अवसाद की निंदा की

न उल्लास की प्रशंसा

वह तो ऐसा ही बैठा रहा जैसे वह हो ही न

वहाँ तो मानो कोई व्यक्ति ही न रहा

जो हो रहता अबाध हो रहता

जो मिटता वह मिटता ही जाता


कली ने देखा कि देखते ही देखते मनुष्य के

मन का महासागर क्षीण होने लगा

हृदय के महाबलवान हाथी खोने लगे

आश्चर्य!

मात्र देखते ही देखते महासागर

अपनी अतुल्य जलराशि और भीषण ज्वार भाँटो के साथ समाप्त हो गया

हृदय का पावन सरोवर निस्तरंग स्फटिक सा निर्मल हो गया

महाआश्चर्य!

देखते ही देखते

वहाँ कोई देखने वाला भी न शेष बचा था

कुछ वहाँ ऐसा अघटा घट चला था जो उस कली की बूझ से ही न्यारा था


भोर के पूर्व उस साधारण मनुष्य की

आँखें ऐसे खुली

जैसे सूर्य चंद्र अकारण असीम के गर्भ से उगते हों

वह ऐसे अनायास उठा जैसे आकाश में नीला रंग उठता हो

धीमे धीमे वह ऐसे चल पड़ा और चलता चला गया

मानो हवाएँ हों बस चल पड़ी हों

न जिनका प्रस्थान हो न ही गंतव्य हो

इतना विराट ऐसे घटा था जैसे विराट से विराट होने का विधान

सरल से सरल सहज से सहज ही होता हो


मनुष्य में घटे अघटा को निहारने में

कली को जीवन का रहस्य हाथ लग गया

उसने स्वयं को अपने प्राणों से उठ रही खिलावट पर सहज छोड़ दिया

खिलते हुए उसने न खिलावट पर गुमान किया

न ही घूरते हुए उल्लुओं चीखते चमगादड़ों पर मलाल किया

जो था उससे अन्यथा की कामना ही उसे न उठी


अहा! देखते ही देखते भोर हो चली

देखते ही देखते उल्लू ओझल हो गए

चमगादड़ अपनी चीख के साथ विलीन हो गए अँधियारा छँट गया

देखते ही देखते कली फूल हो चुकी

उसे सूरज की कुँआरी किरणों ने अपना पहला चुम्बन दिया

रंग बिरंगी तितलियों से उसकी भाँवर पड़ने लगी

भँवरों का मधुर गुंजार उसके आस पास गूंजने लगा

मलयागिरि से

हिमालय की अक्षत चोटियों की ओर चली शीतल पवन

उसकी गँध को अपने साथ लेने आई

भोर में जाग रही कितनी ही आँखों को उसने अपनी ओर

बड़े अहोभाव से निहारता पाया

देखते देखते ही देखते विषाद में सिकुड़ा उसका जीवन

प्रसाद में फूलता हुआ फूला न समाता था


देखते ही देखते विराट आकाश ने

उसका फूलना अपने आलिंगन में भेंट लिया

इधर फूल की आत्मा का फूलना निरभ्र आकाश में फूलता चला

उधर इस अतिरेक पर पूरी हुई रोम रोम से कृतज्ञ उसकी देह ढुलक कर

धरा को अर्पित हो चली

जिसे मंदिर की ओर चली पुजारिन ने

अपने आराध्य को भेंट कर दिया



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