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धीमे चलिए



धीमे चलिए

राह सूनी हो तो और भी

धीमे चलिए

जो तुच्छ है वह भागमभाग में भी नहीं मिलता

मिलता मिलता सा बस जान पड़ता है

जो विराट है

अशेष जीवंत है

वह घट ही रहा है

इसलिए जब राह सूनी हो तो

उस में खुद को घटाने को

धीमे चलिए

पहर भर डाली पर अटकी बरखा की बूँद

बस अब झरने को है

इसलिए धीमे चलिए

अनपहचानी चिड़िया का गीत

शुरू होने

पहचानी का बस पूरा ही होने को है

इसलिए धीमे चलिए

फूल की क्वाँरी सुगंध

बस फूटने को है

इसलिए धीमे चलिए

वह भूरा कीड़ा

भोजन की तलाश में निकला है

इसलिए धीमे चलिए

बादलों के पार

पौ फटने को है

इसलिए धीमे चलिए

हवा चुप है

वह शायद प्रतीक्षा में है कि

डाली की बूँद ठीक अपने सम्मुख की माटी में

बिना भटके डूब जाए

इसलिए धीमे चलिए

अघटा घट रहा है

घट चुका चुक रहा है

इसलिए धीमे चलिए

थम ही जाइए

जहाँ इतना कुछ विराट सहज जीवंत घट रहा है

वहाँ आप घट चुके

हो सके तो अब सदा के लिए गलकर

विदा ही हो जाइए

नहीं तो कम से कम

धीमे तो चलिए

धीमे चलिए

धर्मराज

25 August 2022


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