वे काफ़ी दूर से यात्रा करके आईं थी। कमरे में आते ही बिना औपचारिकता के उन्होंने कहा कि, कई वर्षों से वे रोज़ ध्यान का अभ्यास करती रही हैं। जिससे बाहर उनके जीवन में थोड़ी बहुत सहूलियत मिली है, फिर भी भीतर कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। विचार कम आते हैं, लेकिन उनकी निरंतरता पहले की तरह ही बनी हुई है। एक अजीब सी उदासी जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है, वैसे वैसे और घनी होती जा रही है।
अभी हम लोगों ने संवाद में थोड़ा साथ चलने की शुरुआत की कि, उन्होंने बात बीच में ही लपक ली और कहना शुरू किया, यही तो ‘ध्यान’ है। यही तो साक्षी की साधना है। हम समझते हैं, हम कर्ता हैं, जबकि हम साक्षी हैं। हम तो बस जो है, उससे निर्लिप्त देखने वाले हैं। यदि हमें अपने इस स्वरूप का ज्ञान हो जाय, तो हमें कुछ भी नहीं छू सकता है। हमें बस अपने इसी स्वरूप को बार बार जागकर जानना है, जो बार बार छूट जाता है। मुझे बस इस जागरण में आप मदद करिए कि, कैसे मैं इस साक्षी भाव में सदा स्थित रह सकूँ।
ग़ज़ब के लोग हैं हम, बिना बैसाखी के हमें चलने का विचार भी नहीं आता है। यह ख़्याल ही नहीं आता है कि, सहारे से मुक्त होकर भी जीना देखना सम्भव है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह जो हमारी सोच समझ पशु जगत से होकर आई है, उसका हमारे चित्त पर अभी भी गहरा से गहरा प्रभाव है। हज़ारों लाखों सालों के तथाकथित विकास के बाद भी हमारी सोच समझ का मूल आधार वही है।
‘पशु’ शब्द बड़ा अर्थपूर्ण है, जो पाश से बना है। पाश यानि रस्सी। हम सोचते भी हैं तो हमारे सोच विचार एक तय दायरे में घूमते हैं। वैसे ही जैसे बँधा हुआ पशु, उतने ही दायरे में घूमता है, जितना रस्सी और खूँटे की अनुमति होती है। पशु के जीवन में उतनी ही गतिविधि होती है, जितना उसके शरीर के लिए आवश्यक होता है। वह अपने शरीर के इर्द गिर्द ही घूमता रहता है। हमारी लाखों साल की समृद्धि का कुल परिणाम यह हुआ है कि, जहां पशु के लिए शरीर के इर्द गिर्द जीवन का घूमना ही एक मात्र जीवन है। वहीं अपने जीने के लिए हमने एक छद्म केंद्र का आविष्कार कर लिया है। वह छद्म केंद्र कुछ और नहीं ‘मैं’ है। कुल तरक़्क़ी हमारी इतनी भर है कि, जहां पशु शरीर को केंद्र बनाकर जीता रहता है, वहीं हम ‘मैं’ को केंद्र बनाकर तरह तरह से उसी के इर्द गिर्द घूमते हुए जीते रहते हैं। लेकिन ढंग हमारा वही पशु का ही है। जो बँधकर जीने का है। जो खूँटे से लगकर जीने का है। न देह का खूँटा केंद्र हुआ ‘मैं’ का बोध खूँटा हो गया।
हम इस तरह से केंद्र के सहारे से ही देखने, सुनने, समझने के लिए संस्कारित हैं कि, जब खुद को देखने की भी बात आती है, तो सवाल खड़ा कर लेते हैं कि, वह कौन है जो स्वयं को देखेगा।
यह सवाल ही दोषपूर्ण है। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि, न देखा जा रहा है, न ही देखने में गहन अभिरुचि है। देखने के लिए देखने वाले की कोई भी आवश्यकता नहीं है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि, भले लाखों साल से हमने देखने वाले के चश्मे से ही देखा है, तो बिना देखने वाले के देखने की क्षमता नष्ट हो गई है। जब हम चाहें बिना देखने वाले के सीधे हम जैसे हैं, जो हैं उसे देखा जा सकता है।
लेकिन हम करते क्या हैं? जब इस बात की प्रासंगिकता हमारे सामने महत्वपूर्ण हो जाती है कि, स्वयं को देखा जाय तो ‘मैं’ को देखने के लिए साक्षी शब्द को ले आते हैं। यह सिर्फ़ उस केंद्र का नाम परिवर्तन हुआ जिसे ‘मैं’ कहा जाता है। देखना अभी भी उसी पुराने बंधनकारी ढंग से ही हो रहा है। ‘मैं’ से ‘साक्षी’ नाम बदलने से या खुद को निर्लिप्त होने का सुझाव देने से वह चीज़ भला कैसे बदल सकती है, जो वहाँ पर लाखों साल से काम कर रही है। निंबोली को आम समझने से उसकी कड़वाहट कम नहीं हो जाती। यह वस्तुतः आत्मसम्मोहन है।
आख़िर हमें स्वयं को जानने के लिए किसी भी अन्य संस्था की ज़रूरत ही क्यूँ है? चाहे वह गुरुजनों की कृपा की तरफ़ आस लगाना हो, ईश्वर का मुँह ताकना हो, या किसी भी तरह का माध्यम साक्षी इत्यादि के रूप में क्यूँ न हो। यह सब स्वयं को देखने की पीड़ा से बचने के बहाने हैं। यह सब हमारी गहरी तंद्रा में बने रहने के लिए सुंदर शब्दों में गढ़े गए बहाने हैं।
स्वयं को देखना बिल्कुल भी कठिन नहीं है, बशर्ते हम अपनी बहानेबाज़ी से बाज आएँ।
इसको बिना जटिल बनाए हम आप साथ साथ चलते हैं। मुझे खुद को अपनी परिपूर्णता में समझना है तो, सर्वप्रथम आँख, कान, नाक इत्यादि मेरी देह की संरचना पर जो भी घट रहा है, उसके प्रति जो अब तक असजगता बनी हुई थी, वहाँ स्वाभाविक रूप से सजगता फैल जाएगी। यह अभी हम देखें, इसमें कुछ भी जटिल नहीं है। जब आप एक फूल को गौर से देखने में उत्सुक होते हैं, आपकी आँखों की पुतली फैल जाती है।
देखने मात्र की उत्सुकता और तत्परता से मेरा कहीं सोच विचारों में बँटा ध्यान लौटकर अभी जो भी कुछ इंद्रियों पर घट रहा है, वहाँ मौजूद हो जाएगा। आँखों की रेटिना पर जो भी प्रतिबिम्ब बन रहे हैं, कानों के ईयर ड्रम पर जो भी ध्वनि की चोट पहुँच रही है, वहाँ सजगता हो जाएगी। पहले भी वहाँ दृश्य और ध्वनि की घटना हो रही थी लेकिन असजगता थी। अब वहाँ जो भी कुछ हो रहा है, समझने की उत्सुकता के कारण वहाँ सजगता है। इसमें किसी भी तरह की साक्षी जैसी बाह्य संस्था की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
अब हम भीतर प्रवेश करते हैं, वहाँ भी विचारों की निरंतर आवाजाही बनी हुई है। हमारी स्वयं को समझने की उत्सुकता वहाँ भी जो विचार, छवियाँ, अनुभूतियाँ आ जा रही हैं, उनको जैसी की तैसी देख रही है। हम उन्हें सही-ग़लत, अच्छा-बुरा नहीं कह रहे हैं। वे जैसी हैं, वैसा का वैसा उन्हें देखा जा रहा है। पहले भी वे चलती रहती थी, लेकिन असजगता में पता नहीं चलता था। अब वे देखने में रुचि के कारण स्वाभाविक रूप से पैदा हुई सजगता में चल रही हैं। इसमें कहीं से भी साक्षी की धारणा की कोई आवश्यकता नहीं है।
विचारों को देखते हुए यानि उनके प्रति घटती हुई सजगता के साथ हमारी स्वयं को अपनी परिपूर्णता में देखने की उत्सुकता ही अब यह सवाल उठाती है कि, यह विचार, अनुभूतियाँ और छवियाँ किसे आ रही हैं? इसका अर्थ अब वह देखने और सजग होने का तीर दोमुँहा भी हो जा रहा है। वह तीर जो विचार आदि आ रहे हैं, उन्हें तो देख ही रहा है, जिसे विचार आ रहे हैं, उस सत्ता अथवा केंद्र को भी देख रहा है। इस देखने में जिस एहसास को ‘मैं’ कहा जाता है, उसे बिना किसी आग्रह के जैसे (वह कोई अविनाशी सत्ता है या क्षणभंगुर है) बस जैसा भी वह एहसास है, उसे देखा अथवा महसूस किया जा रहा है। यह एहसास पहले भी था, अब बस अंतर यह हुआ है कि, पहले वहाँ सजगता नहीं थी इस एहसास के प्रति, अब वहाँ पर सजगता है। यह सजगता देखने की उत्सुकता से स्वतः पैदा हुई है। न कि इसका जन्म किसी साक्षी जैसी संस्था के अपने ऊपर थोपने के द्वारा हुआ है।
स्वयं को देखने की इस समूची प्रक्रिया में हमारी उत्सुकता ही पर्त दर पर्त हमें उघाड़ते हुए इस बिंदु पर पहुँची है, जहाँ देखी जाने वाली विषयवस्तु और देखने वाले को एक साथ देखा जा रहा है।
अब एक अंतिम प्रश्न उठता है कि, देखने वाले और देखी जाने वाली विषयवस्तु के बीच जो विभाजन है वह क्या है?
इस प्रश्न के साथ जब देखने की सजगता उस विभाजन पर पड़ती है तो, एक अभूतपूर्व तथ्य हमारे देखने में प्रकट होकर आ रहा है कि, देखने वाले और देखी जाने वाली चीज़ के बीच वास्तव में कोई विभाजन है ही नहीं। न जाने कैसे और कब से वहाँ पर यह केंद्र अथवा ‘मैं’ अपनी ही विषयवस्तु के साथ अलग होकर बना हुआ है। यह तथ्य प्रकाश में आते ही हमारी पूरी संरचना जहाँ एक ओर प्रकाश में आ जा रही है, वहीं इस पूरी संरचना का जड़ मूल से समापन भी हो जा रहा है। यह अंत बिना किसी ‘साक्षी’ के बस हम जैसे हैं, वैसे ही खुद को देखने की उत्सुकता में सहज ही हुआ है।
अब यहाँ एक दो प्रश्न और उठते हैं कि, उस उत्सुकता और उससे उपजी सजगता का क्या हुआ, जिससे स्वयं को पूरी तरह उघाड़कर देखा गया। हम अपने अंदर देखेंगे तो पाएँगे कि, वह उत्सुकता और उससे उपजी सजगता अपने ‘साध्य’ यानि स्वयं को देखने के साथ ही विलीन हो गई। जैसे न देखने के कारण वहाँ असजगता से समस्या बनी हुई थी, वैसे ही देखने मात्र की उत्सुकता से उपजी सजगता से वह समस्या विलीन हो गई। साथ ही सजगता भी विदा हो गई, जैसे रोग के साथ उसका निदान भी चला जाता है।
वहाँ समस्या कहीं बाहर से नहीं आई थी। इसलिए समाधान भी बाहर से न हो सका था। बाहर से होने वाले साक्षी जैसे समाधान उस समस्या तक पहुँच ही नहीं सकते हैं। वे बस एक तरह का पलायन निर्मित करते हैं।
दूसरा प्रश्न उठता है कि, जहाँ मैं की संरचना की छाया भी नहीं है, वहाँ जीवन क्या है?
इस प्रश्न का उत्तर जीवन स्वयं है। वह जीवन जो दुःख की छाया भी नहीं जानता। वह जो समय से परे है। वह जीवन जो प्रेम से सिक्त है। न उसे जाना जा सकता है, न ही ऐसा है कि वह जिया नहीं जा रहा है। जो भी कुछ कहा जाय फिर भी वह कहने में पूरा बैठता ही नहीं है। फिर भी जहाँ जीना घट रहा है, वहाँ भरा पूरा है।
मीटर गेज पर गुजरने वाली ट्वाय ट्रेन की सीटी की आवाज़ पेड़ों से छनकर हम तक पहुँच रही थी। उसे हम तब तक चुपचाप सुनते रहे, जब तक वह इतनी दूर नहीं हो गई कि, हमारे कान उस ध्वनि को पकड़ने में सक्षम हों।
उन्होंने कहा कि क्या वह जो उन्होंने ध्यान व साक्षी के नाम पर किया, वह व्यर्थ गया?
जब जाग जाएँ, तो जागने वाले बीते स्वप्न की सार्थकता या व्यर्थता से कोई सरोकार नहीं रखते।
हम दोनों ही मुस्कुरा उठे!
धर्मराज
21/08/21
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