चतुर्थ पहर की रात्रि में उतर रहे नि:शब्द के अबाध महागीत को
एक शब्द की भी अँजुरी में सँजोने की जिसे न चाह उठी
सप्तम पहर के दिन में अपशब्दों की बौछार से
तिल भर भी जिसने मुँह न फेरा
ऐसे रहस्यदर्शी की उपस्थिति निमित्त मात्र है
पूर्णचंद्र के नीचे बिखरी सप्तपर्णी की प्रचुर गंध पर
जिसके स्वाँसों की तनिक भी लय न टूटी
नदी तट पर शव को श्वानों से नुचते देख जिसकी
पलक झपकने की गति न बदली
ऐसे रहस्यदर्शी की उपस्थिति निमित्त मात्र है
जिसने देह को मिट्टी जाना मन को निरभ्र आकाश बूझा
स्वयं को आकाश के पार की अशेष दीप्ति जान भी
प्रेम का पर्याय जो प्रेयसी की प्रतीक्षा करता है
उससे प्रेम की भिक्षा माँगता है
ऐसे रहस्यदर्शी की उपस्थिति निमित्त मात्र है
अमृत होकर भी जिससे
तृण भर भी मृन्मय से निष्ठा न टूटी
रचपचकर सत्य हृदयंगम कर भी
जिससे असत्य का कौतुक न बिगड़ा
ऐसे रहस्यदर्शी की उपस्थिति निमित्त मात्र है
धर्मराज
14/12/2020
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