ऐसा लगता है
जैसे जैसे कविता परिपक्व होती है
वह जीवित होती जाती है
उस से उलाहनें और शिकायतें विदा होने लगती हैं
उस से कवि विदा होने लगता है
कभी आता है तो प्रार्थना में बस औपचारिक पात्र की तरह
ऐसा लगता है
जैसे जैसे कविता परिपक्व होती है
उसमें प्रसाद उतरने लगता है
वह नृत्य सी करती है
अतुकांत होकर भी वह जैसे गाई जा रही होती है
सम्यक् हृदय की भूमि पाकर
पकती हुई कविता
कवि के व्यक्तित्व को आत्मसात् कर लेती है
कवि कविता हो जाता है
वह कविता जो अव्यक्त सौंदर्यबोध में है
जो कलरव के अविनाशी संगीत में है
धर्मराज
15 March 2023
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