प्रेम ने जब इंसान कविता रची
तो मुक्ति का कागद चुना
महोत्सव की स्याही से
उसने पहला आखर आँख रचा
वह आँख जो बाहर अच्छा बुरा ही नहीं
चाहे तो भीतर भी
अपने सिरजनहार को निहार सकती है
उसने कान रचे
जो बाहर के गीत या कोलाहल तो सुन ही सकते हैं
चाहें तो भीतर मुक्ति के कागद से गुथा
मौन संगीत भी सुन सकते हैं
उसने कंठ रचा
जो कभी न आने वाले परदेव को पुकार सकते हैं
चाहे तो भीतर सदा सर्वदा विराजमान आत्मदेव को
भेंट भी सकते हैं
उसने पाँव रचे जो महत्व की दौड़ में
अंतहीन गोल घूम सकते हैं
चाहे तो अपने सृष्टा में डूबने का माध्यम भी बन सकते हैं
हाथ रचे जो फूलों की पंखुरियों को छू सकते हैं
चाहे तो जिसने हाथों को रचा ही हुआ है उसे
महसूस कर सकते हैं
उसने हाव रचे भाव रचे भंगिमाएँ रचीं
मन रचा समय रचा
जीवन रचा मृत्यु रची
उसने मैं का मायावी अहसास रचा
यह मैं जो अपने हर हाव से भाव से
भंगिमाओं से
मन की पींगों से स्वयं को पुष्ट करता है
यह मैं जो जीवन को जन्म और मृत्यु के झाँसें में देखता है
यह मैं जो जन्म से हर्ष और मृत्यु से विषाद रखता है
और चाहे तो यह मैं स्वयं की मायावी वृत्ति प्रवृत्ति समझकर
अपने विसर्जन में
प्रेम से प्रेम पर रची कविता को
प्रेम में ही समाधि दे सकता है
धर्मराज
10 February 2023
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