
प्रेयसी के गाँव
प्रेमी उल्टे मुँह प्रवेश कर रहा है
मरघट जहाँ कोई बिना मरे नहीं बचता
जिसे वह अब तक गाँव समझता रहा
उसकी गलियाँ चौराहे महल झोपड़ियाँ दुकानें मंदिर
सब उसने झाँक लिए
देख लिया प्रेयसी वहाँ नहीं रहती है
परिचित अपरिचित घने विरल निकट दूर
सब नाते खंगाल लिए उसने
सब रिश्तों को भेंट कर टटोल लिया
प्रेयसी किसी भी रिश्ते नाते में नहीं है
न केवल इस गाँव और इसके रिश्ते नातों में
वरन् प्रेयसी का मिलन उसकी तलाश के अंत में भी नहीं है
जैसे जैसे यह बोध सत्यापित हो रहा है कि
प्रेयसी इस गाँव में होती ही नहीं है
उसकी खोज तक में नहीं है
प्रेमी के पाँव सहज ही उल्टे पड़ चले हैं
आश्चर्य!
उसे प्रेयसी का न मिलना निराश नहीं कर रहा है
वह तो सहज किसी रहस्य दिशा में बढ़ता जाता है
सम्मुख की ओर नहीं
विमुख की ओर नहीं
कदाचित् उसका भवन ग्यारहवीं दिशा में है
जिसमें प्रेमी की गति नहीं
समाधि है
इस प्रेम समाधि में मिटने से पूर्व
प्रेमी अपनी पीठ पर उसके धड़कते वक्षस्थल को
अनुभव कर पा रहा है
उसकी रूक्ष काया प्रेयसी के सुकोमल स्पर्श से आच्छादित है
प्रेयसी से उठ रहे मौनगीत में
उसका कोलाहल कंठ घुल चला है
प्रेयसी की अपूर्व गंध धीमे धीमे उसे सोख रही है
एक अंतिम चाह उमगती है
वह महामिलन में मिटने से पहले दर्शन तो उसका कर ले
मुड़ने मुड़ने भर की देर में आँखें
पूरी देह लेकर प्रेयसी में ही समा जाती है
अपने भाल पर जन्मों जन्मों से
प्रेयसी के एक चुंबन को तरसते प्रेमी को
वह पूरा ही आत्मसात कर जाती है
प्रेयसी पूरा ही आत्मसात् करती है
आह! क्या वह स्वयं प्रेयसी हो गया
नहीं नहीं वह प्रेयसी तो प्रेमी की प्रतीक्षा तक थी
वहाँ अब प्रेम ही है
धर्मराज
31/07/2023
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