अनगिनत चरणों में शीश धरकर
भी अधूरे छूटे मेरे प्रणाम
आज अपने चरणों के प्रणाम से
पूरे हो चले हैं
इन नयनों से तो कितना कुछ शुभ अशुभ मैंने नहीं देखा
फिर भी मेरा दर्शन सदा खंडित ही रहा
अपने दर्शन को पाकर
आज मेरे सारे खंडित दर्शन पूरे हो चले हैं
नित नए नए परिचयों में उतरकर भी
मैं सदा अकेला अपरिचित ही रहा
स्वयं की जरा सी भनक से ही सारे परिचित अपरिचित
आत्मवत हो चले हैं
बैरंग लौटे असंख्य प्रेम निवेदन भेजे थे मैंने
जब जीवन प्रेम से सूना था
मैं उसी प्रेम माटी का भांडा हूँ
जिससे ये सकल अस्तित्व का खेल बनता बिगड़ता है
यह बूझ सब दिशाओं से
प्रेम के नव नव झरने
मेरी ओर अनायास उमड़ चले हैं
धर्मराज
14/08/2020
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