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जैसे ही प्रेम का पहला अँकुर फूटा
‘मेरे होने के’ विराट गगनचुंबी भवन की नींव हिल गई
जैसे जैसे प्रेम का अँकुर उगा उगता चला
‘मैं’ कँपा कँपता चला
जिस दिन उसकी पहली पाती के घूँघट खुले
मेरे कँगूरे ढह गए
उधर पहली शाखा फूटी
इधर मेरी पहली मंज़िल गिरी
फिर तो हर शाखा हर पाती पर
‘मैं’ ढहता भहराता रहा
मेरी हर मंज़िल की बैठकें
कोने में छुपाकर रखे गए कूड़ेदान
निजी शयनकक्ष तिजोरियाँ
पूजाघर मयखाने
रंगी पुती दीवारें सीढ़ियाँ झरोंखे
क़ीमती झाड़ फ़ानूस पेंटिंगें
सँजोई गई थातियाँ
सब मुझ ढहते में धँसती सिमटती रहीं
ऊपर के चमचमाते भवन की मंज़िलें दर मंज़िलें ही नहीं ढही
नीचे के वे तलघर भी तल दर तल उखड़ उखड़कर ढहते रहे
जिनमें मेरे अतिरिक्त कोई आता जाता न था
कुछ तो ऐसे भी ढहे जिनमें मैं भी कभी न पहुँचा था
जिस दिन प्रेम की पहली कली चटखी उसकी सुवास उड़ी
मैं चुपचाप पूरा ही ढहकर खंडहर हो गया
और उस क्षण जब प्रेम का पहला फल पककर गिरा
‘मैं’ समूचा ही खंडहर सहित धराशायी हो गया
अब मलबे के ढेर में
बस वे गीत गाने भर को जो प्रेम ने सौंपे हैं
अस्मिता भर शेष बचा हूँ
उन गीतों में प्रेम का वह गीत भी है
जो कहता है
कब प्रेमगीत पूरे हों
प्रेम ही प्रेम बचे
मैं पूरा मिटूँ ही मिटूँ
मेरीअस्मिताभीअबनबचे
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