उनको प्रणाम करने पर उनका ध्यान मेरी तरफ़ गया। देखते ही उन्होंने बड़े स्नेह से मुझे अपने पास बिछी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। वे पिछली सदी के एक बहुत ही प्रसिद्ध आध्यात्मिक शिक्षक की परम्परा में दूसरी पीढ़ी के व्यक्ति थे। यद्यपि उन आध्यात्मिक शिक्षक ने बहुत ही गम्भीरता से सब उपाय किए थे कि, उनकी शिक्षाएँ परम्परा कवलित न हो जाएँ, लेकिन परम्परा वृत्ति के अतिरिक्त शिक्षाओं को आत्मसात् करने का कोई और उपाय हम जानते ही नहीं हैं। जबकि परम्परा सीधी साफ़ शिक्षाओं को बड़े ही सुंदर ढंग से ओझल कर देने का कुटिल उपाय लगता है। परम्परा चाहे वह विधेय की हो या निषेध की, यह सीधे देखने समझने और बोधपूर्ण होने में सबसे अधिक बाधक प्रतीत होती है।
थोड़ी देर की इधर उधर की बात के बाद उन्होंने अपने आध्यात्मिक शिक्षक के साथ बीते संस्मरण सुनाने शुरू कर दिए। उनके यशोगान में उन्होंने कोई कमी नहीं रख छोड़ी। उन्होंने बताया कैसे उन्होंने एक फल न देने वाले आम के वृक्ष से फल देने को कह दिया, तो अगले साल वह फल देने लगा। कैसे वे बुद्ध पुरुषों के हज़ारों साल बाद भी चरण चिन्ह पहचान लेते थे। उन्होंने बताया कि, कैसे वे जब नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि से मिलने पहुँचे तो कवि ने कहा कि, प्रेम के देवता आ गए। उन्होंने किसी का बहरापन ठीक करने से लेकर उनके कुंडलिनी जागरण में होने वाली पीड़ाओं तक के बारे में भी बताया। उन्होंने कैसे उनको गुरु बनाने के लिए बनाई गई संस्था और बहुत बड़ी सम्पत्ति को त्यागने से लेकर कैसे वे दूसरे के मन की बातों को पढ़ लेते थे तक बताने में कोई कोर कसर न छोड़ी। उनके पूर्व जन्मों के गौरवशाली अतीत के बारे में, उनके दैवीय लक्षणों के बारे में उन्होंने विस्तार से प्रकाश डाला। अपने प्रति उनके आत्मीय व्यवहार और निकट सम्बन्ध को उभारकर दिखाने में वे बिल्कुल भी नहीं चूके।
अपने श्रद्धेय शिक्षक के एक विशेष वृक्ष के नीचे विशेष बेला में जन्मों जन्मों के अथक श्रम व प्रयास के पश्चात बुद्धत्व प्राप्ति को बड़े ही अनूठे ढंग से उन्होंने सरल शब्दों में महिमा मंडित कर प्रस्तुत किया। यह सब जब वह कर चुके, जब शिक्षाओं पर प्रकाश डालने का प्रश्न आया तो उन्होंने बड़ी ही दक्षता से इस बिंदु पर प्रकाश डाला कि, कैसे उन शिक्षक की शिक्षाएँ अन्य आध्यात्मिक गुरुओं से सर्वथा भिन्न है। अन्य लोगों से हटकर उन्होंने जीवन के दुःख से मुक्त होने के सम्बंध में क्या कहा है वग़ैरह वग़ैरह। वे इस प्रश्न से स्वयं को बड़ी ही चालाकी से बचाते चल रहे थे कि, उनकी शिक्षा का उन पर प्रभाव क्या है? शिक्षाओं के उनकी अपनी चेतना में सत्यापन होने के पश्चात उनका स्वरूप क्या है।
वस्तुतः किसी भी शिक्षा का मूलभूत स्वरूप कोई तब तक प्रकाशित नहीं कर सकता है, जब तक उसने स्वयं अपने जीवन में उसका सत्यापन न किया हो। जो कि जीवन को दाँव पर लगाने जैसी घटना है। उन्होंने थोड़ी ईमानदारी दिखाई और यह स्वीकार कर लिया कि उन्हें अपने शिक्षक की शिक्षा का कोई बोध नहीं है। वे शिक्षा के बारे में बहुत जानते हैं, शिक्षा को बिल्कुल भी नहीं जानते। जीवन में हज़ारों गोष्ठियों के वे वक्ता और प्रतिभागी रहे हैं, लेकिन उनके जीवन में वे शिक्षाएँ उतर नहीं सकी हैं।
सैकड़ों आश्रमों में घूमते हुए, गुरुजनों और शिष्यों से मिलते हुए एक वास्तविकता पकड़ में आनी शुरू हुई कि हमारा जीवन और दृष्टि बड़ी ओछी और अवास्तविक है। हमारे हाथ अगर कोहिनूर हीरा भी लग जाए तो उसको हम सब्ज़ी तौलने के बाट के रूप में ही प्रयोग करेंगे। यह बड़ी भारी विडम्बना है, हम जो हैं, वही देख समझ और पहचान सकते हैं।
लगभग हर आश्रम, सम्प्रदाय, इस हेतु बने केंद्र और परम्परा में इस तरह की गाथायें प्रचलित हैं। हम लोग अपने गुरुओं की महिमा इन्हीं चमत्कारों से आंकते हैं। किसी का कान ठीक कर देना, वंध्या वृक्ष से फल पैदा कर देना, धन सम्पत्ति का त्याग कर देना, यह सब तो कोई छोटा मोटा चिकित्सक या सनकी भी कर सकता है।
जब सूरज उगा हो तो उसकी महिमा यदि इतने भर तक हमारे जीवन में सीमित हो जाय कि, उसने फूल खिलाए, उसने आकाश में सतरंगी इंद्रधनुष बनाए या उसने अंधेरा दूर किया, तो यह बड़ी सतही बात होगी। सूरज की सच्ची महिमा हमारे मुँह में इससे सिद्ध होती है कि, हम खिले। लेकिन हमारी विडम्बना है कि, सूरज को हम अपने अंतस में प्रवेश नहीं होने देना चाहते हैं।
बुद्धत्व दूसरों के गपशप के लिए की जाने वाली बातें हैं। जो व्यक्ति जीवन में जागा हुआ चल रहा है, वह तो अबोध बच्चे जैसा सीखता हुआ जीता चलता है। हमारी समझ और उसकी समझ में बुनियादी अंतर होता है। हमारी समझ में बुद्धत्व किसी विशेष स्थिति को उपलब्ध हो जाना है, उसके लिए उपलब्धि की बातें ही बुद्धुओं की बातें हैं। या कहें समय से परे का जागरण एक मात्र उसकी उपलब्धि है। जिसमें कोई जागृत रहने वाला होता ही नहीं है, तो उपलब्धि की बात ही अप्रासंगिक हो जाती है।
जैसे हमारी अपने बारे में एक छवि है, ऐसे ही हम छवि उस जीवन के बारे में बनाते हैं, जहाँ जीवन जागकर जिया जा रहा है। हमको भला क्या पता है कि जहाँ जीवन जागा हुआ है, वहाँ कोई व्यक्ति होता है भी या नहीं। यदि हम सच ही इस तरफ़ बढ़ें तो हमारा सरोकार इससे होना चाहिए कि, हम कितना प्रमाद या बेहोशी हैं। न कि किसी को बुद्धत्व को उपलब्ध मानकर उसकी छवि बनाकर उसके जैसा होने कि प्रक्रिया में लगें जो कि हमारा पुराना बेहोशी और खुद को ही मज़बूत करने का ढंग है।
यदि कोई बात अत्यंत सरलता से, सहजता से हमें उपलब्ध होती हो तो हमारी उसमें कोई रुचि ही न होगी। हमें तो दुरूह, कठिन से कठिन चीजें और लक्ष्य ही आकर्षित करते हैं। उसमें हमें एक सांत्वना और आत्मतुष्टि मिलती है कि, जो सारी दुनिया के लिए इतना कठिन है, उसे कर रहा हूँ। यह प्रकारांतर से स्वयं की सत्ता को, होने को सिद्ध किया जाने वाला उपाय है। लक्ष्य चाहे दुनिया के स्वामित्व का हो या बुद्धत्व के स्वामित्व का हो, लक्ष्य मात्र ‘मैं’ का पोषण करता है। संसार या बुद्धत्व के स्वामित्व की रूपरेखा हम ही तय करते हैं। अपनी ही गढ़ी चीज़ संसार का स्वामित्व हो या बुद्धत्व का उसको दुर्लभ बनाने का हम जतन करते हैं। फिर उसे पाने का बेतहाशा श्रम करते हैं। न पाने पर खुद को कोसते हैं और पाने पर फूले नहीं समाते हैं। किसी दूसरे ग्रह का जागा प्राणी आकर हमारी दशा देखे तो यही कहेगा कि, हम गहरी नींद में चल रहे और काम कर रहे लोग हैं।
यदि हम इस मामले को जटिल न बनाएँ तो मूल रूप से जीवन की दो विधाएँ हैं। एक है ‘मैं’ की या दुःख की, दूसरी है बोध की या दुःख मुक्ति की। बोध कोई उपलब्धि नहीं वरन अति सरल जीवन जीने की कला है। इतनी सरल जितनी हम आप सोच भी नहीं सकते हैं।
यदि हम शुभ्र उड़ते हुए बादल को वह जैसा है, वैसा क्षण भर को देख सकते हैं, तो यह बोध की विधा है। जिस क्षण हमने योजना बनाई और कहा कि, अब हम जागृत रहेंगे हर चीज़ को जस का तस देखेंगे, हम ‘मैं’ के चंगुल में वापस आ गिरे।
“जैसे ही मैं अपने प्रति बोधपूर्ण हो जाता हूँ,यह मुक्त जीवन है एवं जैसे ही मैं अपने प्रति बोधहीन हो जाता हूँ, यह बद्ध या दुःख जीवन है।”
जीवन की सारी रहस्य कला इस एक वाक्य भर में पूरी हो जाती है।
समस्या तब शुरू होती है, जब यह मंत्र सुनते या पढ़ते हुए मैं बोध के प्रयोग में उतर नहीं जाता हूँ। उतनी भर देर में विचार प्रवेश करता है, जो इस समझ का विश्लेषण करता है। विचार का इस क्षेत्र में प्रवेश ही बड़ी चतुराई से इस समझ के जीवन में सीधे क्रियान्वन्न को बाधित करना है।
विचार प्रवेश करते ही पहला प्रश्न उठाता है कि, इस बोध के क्षण को कैसे बनाए रखा जाय। ऐसे क्या उपाय किए जायँ कि, यह बोध लगातार बना रहे। ऐसा कहकर वह बोध की अखंडता भंग करना चाहता है। फिर वह बोध प्राप्ति का लक्ष्य बनाएगा, उसको हासिल करने के नाम पर ‘मैं’ की पुरानी विधा बड़ी कुशलता से पूर्ववत बनी रहने में कामयाब हो जाएगी। ऐसा होते ही बोध बनाए रखने हेतु बना ‘मैं’ विधि खोजेगा, अभ्यास करेगा, पुस्तकें पढ़ेगा, उस पर चिंतन मनन करेगा वग़ैरह वग़ैरह, वह बोध के नाम पर कुछ भी करेगा लेकिन बोधपूर्ण नहीं होगा। लेकिन यदि छल के इसी बिंदु पर जब यह विचार उठे कि, इस “’मैं’ के बोध को बनाए कैसे रखा जाय” बोध को संस्कारित करने की मंशा के ख़तरे को समझ लिया जाय, तो बोध जाता हो तो जाए, लेकिन उस हेतु ‘मैं’ की विधा को कोई स्थान नहीं मिलेगा। ऐसी स्थिति में बोध व उसका अनुशासन कहीं नहीं जाता बल्कि ‘मैं’ की संरचना में गहराई से प्रविष्ट हो जाता है। बोध की फिर अपनी मुक्त गति ‘मैं’ की संरचना पर सीधे काम करती है।
बोध से बचने के लिए दूसरा जो उपाय मन करता है वह है कि यह सुनिश्चित करना कि किसे बोध होता है। या मैं की संरचना को देखने वाला कौन है। यह प्रश्न तभी उठता है, जब जागने की तीव्र अभीप्सा नहीं है। इसके कारण ही तथाकथित रूप से आत्मवाद और अनात्मवाद के सिद्धांत अस्तित्व में हैं। सोच विचार में तर्क से, प्रमाण से यह सुनिश्चित कर लेना कि जागने वाला अविनाशी; सनातन आत्मा है, यह बोध हेतु तत्पर न होना है। बोध में पहले से यह मानकर चलना कि मैं शाश्वत हूँ, यह सिर्फ़ अपने विचार को आरोपित करना है। ऐसा करना बोध की नहीं, सोच विचार की ही प्रक्रिया है। पहले से यह तय कर लेना कि कुछ भी शाश्वत नहीं है सब दीये की तरह बुझा देना है, यह भी अपने आग्रह के अनुरूप अवलोकन को दिशा देना है। इसलिए यह भी सोच विचार की ही प्रक्रिया है। बोध बिल्कुल सरल और सहज भाषा में कहा जाय तो है, अपने प्रति बस जाग भर जाना। जब जागरण छूट जाय, छूट जाय। जब पुनः आ जाय बिना पिछले जागरण से इस जागरण को जोड़े या आने वाले जागरण तक बनाए रखने की आकांक्षा के बस जागरण में उपस्थित रहना।
जागरण के इस ढंग का प्रारम्भ भले होता दिखे पर अंत नहीं है। हाँ यह बात और है कि, यह सीधे नहीं अपरोक्ष है। इसलिए इसमें न कोई उपलब्धि है न अनवरत प्रयास। यह कुछ ऐसा है कि, हमारे क्षुद्र मन बुद्धि की सीमा में आता ही नहीं है। यह कुछ अनूठा अपने जैसा ही है। यह तब पाया जाता है जब जागरण ‘मैं’ की संरचना के प्रति जागता उसका अवसान करता हुआ स्वयं भी अस्त हो जाता है।
यहाँ यह समझना अति अति महत्वपूर्ण है कि, स्वयं के प्रति जागरण किसी अन्य विराट लोक या आयाम में जीवन को नहीं ले जाता है। इसे शायद ऐसे कहा जा सकता है, स्वयं के प्रति जागरण या स्वयं के अवसान के पश्चात जो वहाँ पाया जाता है, वह निराला है। उसका ‘मैं’ से या उसके प्रति जागरण या जागरण की क्रिया से सीधा कोई भी सम्बंध नहीं है।
क्या ऐसा सम्भव नहीं है कि, हम जहां हैं, जैसे हैं अपने प्रति बोध से भर जाएँ। बिना किसी उद्देश्य के, बिना किसी कारण से बस जागने के लिए जाग जाएँ। जैसे एक फूल बस खिलने के लिए खिल उठता है। वह सौंदर्य लुटाने के लिए सुगंध फैलाने के लिए नहीं खिलता है, बस खिलने के लिए खिल उठता है। जैसे सूरज उग जाता है। सूरज किसी को प्राण, ऊष्मा या प्रकाश देने नहीं उगता है। वह बस उगने के लिए उग जाता है। यद्यपि फूल से सौंदर्य सुगंध फैलती है, लेकिन वह उसके खिलने की मौज का कारण नहीं है। सूरज से प्राण, ऊष्मा, प्रकाश फैलता है लेकिन वह उसके उगने का कारण नहीं है।
हमारी बुद्धि इतनी कारण और प्रभाव से लदी हुई है कि हम बिना कारण के किसी कृत्य को सोच भी नहीं सकते हैं। बिना किसी कारण के अपने प्रति बोध से आपूर होना एक तरह से अति सरल है। एक तरह से चमत्कारिक है।
निश्चित इस सहज बोधपूर्ण होने में बहुत कुछ घटता है। दुःख की पूरी संरचना विदीर्ण हो जाती है। इस बोध में सहज ही करुणा, निर्द्वंद्व सम्बंध, सहज सृजन का अवतरण होता है। ऐसा बहुत कुछ होता है, जो कल्पनातीत है। फिर भी अपनी समझ बूझ सहज बोध में ही स्थिर रहती है, वह करुणा, सहज सम्बंध के लिए बोधपूर्ण नहीं होती बल्कि बोध के लिए बोधपूर्ण होती है। या यूँ कहें कि जो भी कुछ घटता है, वह अन्य के लिए घटता है। अपने लिए बोध बोधमात्र होता है।
जिसमें समझ का जन्म हुआ उसके लिए यह बोध सरल शब्द से भी सरल है। जिसको इस हेतु स्वयं को प्रस्तुत करने की रुचि या ललक नहीं है; उसके लिए चमत्कारिक है। जिसको बुद्धि विलास करना है, जिन्हें बुद्धत्व पर शोधग्रंथ लिखने हैं, जिसको जागरण में नहीं बल्कि पांडित्य में रुचि है, उसके लिए यह सहज जागरण बुद्धत्व है। जिसको समझ है, उसके लिए यह बोध मात्र है। जीवन की पहेली में बूझ भर जहाँ पर है, वहाँ सारी बुद्धपुरुषों की गाथाएँ, सारे शास्त्र, सारे गुरु, सारी परम्पराएँ, सारे मनोवैज्ञानिक और उनके शोध ग्रंथ छोटे बच्चों के कार्टून चैनल पर देखी जाने वाली बातें हैं। जहाँ बूझ है, वहाँ सिर्फ़ जागरण है। बुद्धत्व कोई दूर की कौड़ी नहीं, बोध बोध बुद्धत्व है।
धर्मराज
01/09/2021
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