महामृत्यु पर महाजीवन
—————————
आकंठ तृप्त होकर भ्रमर ने जब शीश ऊपर उठाया
रह गया अचम्भित अरे!
मैं तो पी चुका रस सामर्थ्य भर
अब भला पुष्प में उमड़ती
यह रसधार किसके लिए है
कूक चुकी कोयल कुँज में जब गीत अपना
रह गई अचम्भित अरे!
मैं तो गा चुकी सामर्थ्य भर
अब भला हो रहा
यह प्रभात किसके लिए है
हो चुका मोर का जब नृत्य अपना पूरा
रह गया अचम्भित अरे!
मैं तो नाच चुका सामर्थ्य भर
अब भला पसर रही
यह पूर्ण चन्द्र की प्रभा किसके लिए है
जीवन मृत्यु के दुश्चक्र में
कर दिया समर्पित जब स्वयं को महामृत्यु में
रह गया ‘वह’ अचम्भित अरे!
मैं तो मिट गया पूर्ण सामर्थ्य से
अब यह कौन बचा है
क्या है यह जो न्यारा है जीवन मृत्यु से
और यह भला हो रहा आख़िर
अखण्ड महारास किसके लिए है
धर्मराज
Comments