स्वीकार!
ओ सर्व स्वीकार की अपूर्व घटना
क्या मुझे साधुवाद न दोगी
क्या मुझे अपने प्रणाम से
अकलुषित कृतज्ञता से
विसर्जित न करोगी
क्या तुम्हारी पावन दृष्टि
मुझ अहंकार पर न फिरेगी
यह सच तो अब जाना देखा है ही कि
मेरी वजह से असँख्य घाव जीवन में रिसे
असँख्य टीसें चुभी
बेहिसाब कराहें घुटीं
अनगिनत आँसू बहे
न जाने कितनी भटकनों भ्रमों में जीवन
ठोकरें खाता रहा
कितनी पीड़ा और कितने दुखों के धक्कों को ही
द्वंद्वों और संघर्षों को ही
जीवन समझा जाता रहा
पर क्या यह सच नहीं है कि
जीवन इन्हीं धक्कों से
इन्हीं भटकनों ठोकरों से
इन्हीं आँसुओं से
‘जाग’ को बढ़ा
क्या बिना दुःख के
प्रमाद की यह लीला अप्रमाद में पूरी हो पाती
क्या यह सच नहीं है
इन्हीं घावों टीसों और कराहों ने
जो मुझ अहंकार के कारण ही पैदा हुई
जागरण के सवाल को पुकारा
स्वीकार!
ओ मुझ झूठे अहंकार के साम्राज्य को
झूठ ठहराती
निर्विकल्प स्वीकार की अनुपम घटना
तुमने जब उन सब कर्म बंधनों को
हाथ और माथे की लकीरों को
ग्रह नक्षत्रों को
संयोगों वियोगों को
सौभाग्यों दुर्भाग्यों को
स्थितियों परिस्थितियों को साधुवाद दिया है
प्रणाम और आशीष दिया है
उन सब को अपनी दृष्टि से पावन किया है
जिन्होंने जाग को पुकारा
जिन्होंने शाश्वत प्रेम को पुकारा
तो मुझसे भेद क्यूँ
पूर्ण स्वीकार की पावन घटना
मुझे भी पावन कर जाओ
मुझ अहंकार को भी अपने निर्विकार नयनों से
तार जाओ
मुझ पर भी अपने आशीष और प्रणाम का अभिषेक कर जाओ
मेरे उद्धार पर ही तो यह उद्गार तुम्हारा पूरा सच होगा न
कि जो है वह प्रेम ही है
जो है वह जागरण ही है
मेरा मुझे स्वीकार
धर्मराज
16 February 2023
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