पतझार में बैठा मैं
उसकी बसंत में बाट जोहता रहा
वह पतझार में आया निकल गया
बसंत में बैठ मैं
ग्रीष्म में उसके आने की उम्मीद करता रहा
वह बसंत में आया निकल गया
ग्रीष्म में बैठ वर्षा वर्षा में शीत
शीत में बसंत
मैं उसकी कभी और आने की बाट जोहता था
वह था उसी मौसम में जिसमें मैं था
ताउम्र मेहमान की बाट जोहता रहा
एक दिन पता चला
जिसकी मैं बाट जोहता था
वह मेज़बान घर में था
जहाँ मिलना मेहमान की तरह मुझे था
वहाँ मैं मेज़बान बना बैठा रहा
पता चलते चलते
जब तलक यह पता चला
मेज़बान का वक्त पूरा हो चला
कुल लब्बोलुआब ज़िंदगी का
बस इतना सा है
जिसने नहीं खोजा
उसकी आँखें काँच का टुकड़ा
जिसने नहीं पुकारा
उसके कंठ बांबी हैं
आह फिर
जिसने पुकारा उसने दुत्कार दिया
जिसने खोजा उसने खो दिया
धर्मराज
03 March 2023
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