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तिरुवन्नामलाई की यह पहली यात्रा फ़रवरी 2011 में थी। बंगलुरु रेलवे स्टेशन से उतरकर सीधे मजेस्टिक बस स्टैंड पर आ गया। बस का टिकट बुक करते समय एक हमउम्र युवती ने भी जो मुझसे लाइन में आगे ही खड़ी थी, तिरु का टिकट लिया था। रात्रि के 9 बज रहे थे, बस खुलने में अभी दो घंटे की देर थी। भीड़भाड़ से बचने के लिए टहलते हुए फुटओवर ब्रिज पर चढ़ गया और वहीं लैम्प पोस्ट के नीचे खड़े होकर ‘रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक पढ़ने लगा। यहाँ पर लोगों की आवाजाही न के बराबर थी। थोड़ी देर बाद मेरा इस कर्कश आवाज़ से ध्यान भंग हुआ, कि क्या दाम है तेरा? मैंने पुस्तक से नज़र उठा के देखा तो एक जींस टी शर्ट में अधेड़ उम्र का आदमी थोड़ी दूर पर खड़ी उसी युवती से जिसने कि तिरु का टिकट लिया था, पूँछ रहा था। पढ़ने में मुझे पता नहीं चल पाया था कि कब वह भी टहलते हुए वहाँ आकर खड़ी हो गईं थी। उस युवती ने बड़ी शालीनता से उस व्यक्ति को साफ़ सुथरी हिंदी में जवाब दिया कि, यह तुम्हारी क़ीमत पर निर्भर है। उस व्यक्ति ने थोड़ा झिझकते हुए कहा कि सौ रुपए! लड़की ने कहा कि आपकी क़ीमत सौ रुपए है? उसने कहा कि मेरी नहीं, मैं तेरी कह रहा हूँ। मैं तो करोड़ों का आदमी हूँ। युवती ने कहा कि, तो आप करोड़ों में बिक रहे हैं? उस व्यक्ति ने कहा कि, मैं कहाँ बिक रहा हूँ? युवती ने कहा, अभी आपने कहा न कि, करोड़ों का आदमी हूँ। पहले तो मुझे समझ नहीं आया कि माजरा क्या है। मैं पहली बार किसी बड़े शहर में आया था, तो शहर की इस देह व्यापार संस्कृति से परिचित भी न था। उस व्यक्ति ने युवती को एक गंदी सी गाली दी और उसकी तरफ़ लपका। वह युवती बड़ी सावधानी से हँसते हुए मेरे निकट आकर खड़ी हो गई। वह व्यक्ति वहाँ मेरी उपस्थिति से बिल्कुल लापरवाह था। हमें साथ देखते ही उस व्यक्ति की ग़ायब होने की चाल देखने लायक़ थी। वह सीढ़ियों पर लड़खड़ाकर गिर भी गया, जिस पर हम दोनों लोगों को हँसी छूट गई।
वे साँवले रंग की बड़ी बड़ी आँखों वाली औसत क़द काठी की बहुत सुंदर युवती थी। उन्होंने सोने के कंगन पहने थे। उनकी हथेलियाँ बहुत सुकोमल जान पड़ती थी। उन्होंने गहरे हरे और मरून रंग का घाघरा चोली जैसा परिधान पहना हुआ था। उनके घने काले बाल खूब क़रीने से बँधे थे। जिनमें सफ़ेद फ़ूल का गजरा बँधा था। माथे पर उन्होंने हल्की सी विभूति भी लगाई हुई थी।
आप भी तिरु आ रही हैं? मैंने पूँछा तो उन्होंने सहमति में सिर हिला दिया। आप दक्षिण भारत से ही हैं न? उन्होंने उत्तर दिया कि, वे तमिलनाडु से हैं। आप इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेती हैं, विस्मित होते हुए मैंने पूँछा? उन्होंने बताया कि, मैं अपने पिता के साथ लखनऊ में रही हूँ, जो बैंक में सेवा करते थे। मेरा भी परिचय लेकर उन्होंने आगे बताया कि वे यहाँ किसी आई टी कम्पनी में नौकरी करती हैं और अक्सर तिरुवन्नामलाई आती जाती रहती हैं। हम लोग टहलते हुए बातचीत करते एक छोटी सी काफ़ी की दुकान पर आ गए। मैंने उनसे कहा कि, आप को इस तरह की अनचाही परिस्थिति का सामना करना पड़ा उसके लिए मैं माफ़ी चाहता हूँ। उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया कि, अरे नहीं! यहाँ की कामकाजी स्त्रियाँ ऐसे टुच्चे लफ़ंगों को अच्छी तरह से सबक़ सिखाना जानती हैं। हम फिर हँस पड़े।
काफ़ी देर तक हम लोग चुपचाप खड़े रहे। मुझे यह उत्सुकता बनी हुई थी कि, उनकी क़ीमत वाली बात से क्या अभिप्राय था। मैंने ही चुप्पी तोड़ी और पूँछा कि उस आदमी से आपने उसकी क़ीमत का सवाल उठाया, उससे आप का क्या आशय था? उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि, हमारे चारो ओर तरह तरह की मूल्य सरणी प्रचलित हैं। जिस भी मूल्य सरणी को हमसे स्वीकृति मिल जाती है, वह अपने अनुकूल हमारा मूल्य तय कर देती है। फिर हम उस तय हुए मूल्य के आधार पर जीवन भर अपना मूल्य घटा बढ़ाकर या थिर रखकर प्रमाणित करते रहते हैं। जैसे यदि पद की मूल्य सरणी को स्वीकृति देते हैं, तो यह सरणी हमें ऊँचे नीचे कहीं न कहीं स्थापित कर देगी, और जीवन भर हम खुद को उसके अनुसार ऊँचा नीचा मानकर जीते रहेंगे। ऐसे ही धन के साथ है, हमने एक बार धन की मूल्य सरणी को उसकी उचित जगह से अधिक स्वीकृति दी कि, वह हमें अपनी सरणी में किसी से समृद्ध किसी से दरिद्र तय कर देगी और जीवन भर हम उसी के अनुरूप खुद को समझ जीते रहेंगे। ऐसे ही यश की, आस्तिक नास्तिक की या और भी सरणियाँ काम करती रहती हैं। यहाँ जैसे और जिस सरणी में हम होते हैं, वैसे ही दूसरे का मूल्य भी हम आँकते रहते हैं। मैंने पूँछा, बस एक सवाल और! यदि हम किसी भी सरणी को अपने भीतर स्वीकृति न दें, तो हम क्या होंगे? उन्होंने अपनी बड़ी बड़ी आँखों से मेरी आँखों में गहनतम देखते हुए और मुस्कुराते हुए कहा, अनमोल!
धर्मराज
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