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वर्धमान कृतज्ञता

अपनी स्वर्णिम आभा से

जल तरँग को कंचन करती जाती

गोधूलि में विदा किरण को गलते देख

कृतज्ञता में नवे सिर ने चाहा

गलने से पहले

क्षण भर को ही सही

मैं कहीं तो अपनी

कृतज्ञता की यह अमूल्य धरोहर अर्पित कर जाऊँ


इस भाव से उसने सबसे पहले दुःख की तरफ़ निहारा

अरे! वह तो वहाँ अपनी नींव के साथ मिट चुका था

न दुःख सही सुख को ही अर्पित कर दूँ

उसने सुख की ओर नज़र फेरी

वहाँ भी अनंत शून्य के अतिरिक्त कुछ भी न था

शत्रु के मित्र के अशुभ के शुभ के

आकार के निराकार के

काल के अकाल के

न जाने कितनों के चरण खोजे

कि माथ रख दूँ

आश्चर्य! कहीं कोई चरण ही न शेष बचा था


कृतज्ञता के धन्य अवतरण ने

सृष्टि से शीश तो शीश

चरण भी पोंछ दिए थे


थककर गलने को उद्यत नवे सिर को सहसा यह बोध कौंधा

किस कृतज्ञता से यह शीश नवा

आख़िर किस अज्ञेय कृतज्ञता ने सहर्ष

इस शीश को गलने को उद्यत किया

अकारण अवतरित इस कृतज्ञता के अर्पित करने को

अर्पित करने वाला यह कौन मैं शेष है

यह प्रश्न और

उस अंतिम पवित्र मैं ने प्रश्न को अपनी आहुति दे दी

अब वहाँ अबाध अज्ञेय अकारण सनातन कृतज्ञता वर्धमान है


- धर्मराज

15/11/2021





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