ओटें सब
आड़ें सब जब छिनती जाती हैं
जब साये सब उठते जाते हैं
टेकें जब सब ही गिरने लग जाती हैं
पाँवों के नीचे की धरती भी जब
पूरी खिसकी जाती है
मिटने को आतुर वह
मुस्का जाता है
पेड़ की झरती पाती जब नचती जाती है
बादलों में उड़ती बूँद सागर में
जब चुपचाप समा जाती है
भोर की बेला में जब
आख़िरी तरैया डूबने को आती है
वह मुस्का जाता है
कुछ निराला घटने लगा है
उसके होने के पार
जो ऐसा रचता जाता है कि जितना भी जैसे भी
ज्यों ही वह मिट पाता है
मुस्का जाता है
धर्मराज
28/10/2020
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