अनंत सम्भावनाओं के उमड़ते महासागर की तरह
हर स्वाँस भीतर प्रवेश करती है
और जब लौटती है तब यह हम पर ही निर्भर होता है कि पीछे
फूल कर पिचकता फुफ़्फुस छूटे
करुण विलाप छूटे
या छूटता हो कोई और और विराट होता महोत्सव
वर्णमाला के अक्षरों से गुथे शब्द वही हैं
जब वे उभरते हैं
यह हम पर ही निर्भर है कि जब वे विदा हो चलें
तो चित्त पटल पर प्रलाप छूटे गाथा छूटे या फिर गूँजता हो कोई निराला गीत
गिरकर उठती हर पलक दर्शन को तो
अस्तित्व के सब मुँदे ढँके पर्दे उघाड़ जाती है
यह हम पर ही निर्भर है कि हम यहाँ दर्शक हों दृष्टा हों
या फिर बने रहें असंग साक्षी
हृदय के हर स्पंदन से दस्तक आती है
अज्ञेय की प्रेम पाती ले लेकर
यह हम पर ही निर्भर है कि यह हृदय
देह का टुकड़ा हो
सुख दुःख नदियों का द्वाबा हो
या हो वह शिवलिंग जिस पर झरता हो
सधे सयाने जीवन के बादल से
निचुड़ निचुड़कर
प्रेमरस
धर्मराज
21/08/2020
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