top of page
Image by NordWood Themes
Image by NordWood Themes

सब हम पर ही निर्भर है



अनंत सम्भावनाओं के उमड़ते महासागर की तरह

हर स्वाँस भीतर प्रवेश करती है

और जब लौटती है तब यह हम पर ही निर्भर होता है कि पीछे

फूल कर पिचकता फुफ़्फुस छूटे

करुण विलाप छूटे

या छूटता हो कोई और और विराट होता महोत्सव


वर्णमाला के अक्षरों से गुथे शब्द वही हैं

जब वे उभरते हैं

यह हम पर ही निर्भर है कि जब वे विदा हो चलें

तो चित्त पटल पर प्रलाप छूटे गाथा छूटे या फिर गूँजता हो कोई निराला गीत


गिरकर उठती हर पलक दर्शन को तो

अस्तित्व के सब मुँदे ढँके पर्दे उघाड़ जाती है

यह हम पर ही निर्भर है कि हम यहाँ दर्शक हों दृष्टा हों

या फिर बने रहें असंग साक्षी


हृदय के हर स्पंदन से दस्तक आती है

अज्ञेय की प्रेम पाती ले लेकर

यह हम पर ही निर्भर है कि यह हृदय

देह का टुकड़ा हो

सुख दुःख नदियों का द्वाबा हो

या हो वह शिवलिंग जिस पर झरता हो

सधे सयाने जीवन के बादल से

निचुड़ निचुड़कर

प्रेमरस


धर्मराज

21/08/2020


 
 
 

Comments


bottom of page