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सुप्त परिहास

Writer's picture: DharmrajDharmraj


अरण्य से लौटते उन चरणों की

मंथर

गंतव्य शून्य चाल देख

विस्मित नेत्रों ने उनके मुख की ओर निहारा

वहाँ सुशोभित दो अर्धोन्मीलित नयन न कुछ देखने में

न कुछ न देखने में उत्सुक दिखे

कौतुक के शीर्ष पर से

प्रश्न छूट ही पड़ा

प्रभु यह तो दीखता ही है कि कुछ अपूर्व

उतर आया है

कुछ अव्याख्य बरस पड़ा है

फिर भी कहें कि

सर्वस्व दाँव पर लगा आपने क्या पाया

आख़िर अरण्य में क्या घटा

वे मुस्कुराए

भोर की बेला में धीमे धीमे खिलते रक्त कमल के सदृश

उनके होंठ खिल चले

रात्रि की अंतिम बेला में

जब बालक अपनी पूरी नींद पर जाग

दीपक की लौ को निहारते हुए

जैसे सहसा किलकारी मार उठता है

ऐसे ही किलक कर उनके

संगीत से मृदुल बोल फूटे

कुछ नहीं मित्र

एक सुप्त परिहास था

जिसे हँस पूरा कर लिया गया

धर्मराज

24 January 2023


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