जाने कितने सुबूत नफ़रत ने
ख़ुद के होने के दिए
बग़ैर सबूत गवाह
ऐतबार मुहब्बत पर था
मुहब्बत पर ही रहा
होकर मेहबूब
जाने कितने ज़ख़्म
पीठ पर मिले मिलते ही रहे
न जाने कितनी बार बेइंतहा
सरेआम बेइज्जत हुआ
जो भी हो
हुई कितनी भी फिसलन आसाँ
के मेहबूब अब तो सितमगर ठहरे लेकिन
हुआ जो मेहबूब एक बार
फिर वह मेहबूब ही रहा
संगदिल से थी दिल्लगी
के दिल्लगी ही थी संगदिल
कितनी ही बार क़त्ल हुआ
कितनी बार जनाज़े में सजा
ऐतबार ए मुहब्बत पर ऐतबार क्यूँ था
यह राज था
राज ही रहा
वो लाता कहाँ से था
इतनी बेरहमी नाम पर मुहब्बत के
वो जाने
ये दिल मुहब्बत था
हर हाल में मुहब्बत ही रहा
- धर्मराज
13/07/2023
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