
उससे
शिकायतों के हिसाब बोलते बहुत हैं
उससे शुक्रिया के छुपे बेहिसाब चुप हैं
जो भी हो
न जाने क्यूँ
हर बार जब उसे देने की बारी आती
आगे बढ़ने से पहले
मैं पिघल जाता हूँ
जब भी तय किया
सामने ही तो है वह
शिकायतों का धरा पुलिंदा
उसे दे ही दूँ
इससे पहले देने को आगे बढ़ूँ
मैं पिघल जाता हूँ
जब तय किया
सामने ही तो है वह
रहमत के लिए उसकी
शुक्रिया तो कह दूँ
इससे पहले कहने को आगे बढ़ूँ
मैं पिघल जाता हूँ
कभी कभी तो तय किया
सामने ही तो है वह
उसके पास न कुछ सही ख़ाली ही चला जाता हूँ
इससे पहले आगे बढ़ूँ
ख़ाली हाथ तो मैं
पूरे का पूरा ही पिघल जाता हूँ
वह न होकर भी है ही ऐसा
उसे देने को
उस से लेने को
या उससे मिलने को ही सही
हर बार जब भी आगे बढ़ा
मैं पिघला पिघलता ही जाता हूँ
वह सदा से है
सदा ही रहेगा
वही वह है
पर मैं उस से मिल नहीं पाता हूँ
मिलने को चलता हूँ
हर बार पिघल जाता हूँ
मिलन बिछोह से गहरा
पिघलने का गुर यह
उसी में बुड़ता हूँ
उसी में घुलता हूँ
उसी में फिर उतरा जाता हूँ
अब मैं न मिलने जाता हूँ
न उसे बुलाता हूँ
उसे न जानता न पहचानता हूँ
चुपचाप पिघल जाता हूँ
उसमें चुपचाप पिघल जाता हूँ
धर्मराज
02 November 2022
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