सुबह का सत्र, 10 जनवरी 2024
ऐसे देखो जैसे पहली बार देखा जा रहा है, जैसे मां पहली बार बच्चे को देखती है।
प्रश्न - एक झलक मिली है प्रेम की, उस के लिए पूरा जीवन देना चाहती हूं, ताकि प्रकाश पूरा उतर जाए।
यह भी एक लोभ है। झलक योजना से नहीं आई है, बल्कि योजना का विसर्जन होने से आई है। मैं योजना का एक पुतला है, योजना सच नहीं है, योजना मत बनाइए। प्रारंभ में बहुत फिसलन होती है, पर धीरे धीरे पैर संभलने लगेंगे। लोभ तो उठेगा, पर प्रेम को पकड़ने की कोशिश में वो छूट जायेगा।
राजी है उसमें की जागरण कभी भी ना घटे, या तैयारी है, राजी है उसमें की कभी भी ना हटे। नाराज होना अहंकार का लक्षण है। जो भी घटा है उतना ही पर्याप्त है, उसमें ही कृतज्ञता प्रयाप्त है। कोई भी लोभ बाधा है, वह वही पुराना ढर्रा है जो कुछ पाना चाहता है, या कुछ पकड़ कर रखना चाहता है।
प्रश्न - मेरे पास साधन हैं, मैं सक्षम हूं, तो क्या किसी की मदद नहीं करना, क्या ये पाप नहीं होगा?
हम क्या हासिल करके खुद को सक्षम समझते हैं? जीवन में आप कैसे सक्षम हैं? दूसरे को अक्षम क्यों समझते हैं? वो भाव क्या है जो कहता है कि आप सक्षम हैं? आपके पल्ले कुछ पड़ गया, और आप समझने लगे कि मैं सक्षम हो गया। वो जमीन ही प्रसाद है, जिसपर हमारा होना भी टिका है। हम ही एक उपहार की अभिव्यक्ति हैं, तो हम सक्षम कैसे हो सकते हैं?
अच्छा होगा कि हमारी नेकी को ईश्वर भी भुला दें। नेकी बदी के खिलाफ है। प्रेम करना नहीं पड़ता, प्रेम प्रकट होता है, जब मैं नहीं होता। हमने उलटा जीवन जिया है और हम समझते हैं कि हम कुछ दान करके भलाई करेंगे, उसमें भी बहुत बड़ा दोष है। उलटा जीवन जीया है, इसलिए संकल्प लेना पड़ रहा है। नेकी बदी दोनों बह गए, प्रेम है तो सब बह जाता है।
अपने आप को सक्षम मानना, यानी बात ही भ्रम की है। अहंकार यानी प्रमाद की मूर्ति, जो नैसर्गिक जीवन पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती है।
पाप पुण्य की बात ही बड़ी बचकानी है। खाली समझने के लिए, पुण्य यानी जहां पर मैं नहीं है, और पाप या भ्रम वो है जो मैं को पुष्ट करे। जो मैं के झांसे का मुमेंटम है उसको मिटाने की गति पुण्य है, और जो इसको पुष्ट करे वह पाप है।
प्रेम, पुण्य ये किया नहीं जा सकता है, ये जीवन में उतरता है, घटता है, जैसे प्रकाश या भोर उतर रही है, सहज और निःप्रयास।
प्रेम या होश है तो चीजें अपने आप जगह लेने लग जाती हैं, अस्तित्व में जैसा होना चाहिए ठीक वैसा ही होता है, हम कारण बाद में ढूंढ लेते हैं।
फ्रांस में एक महिला अकारण नाचने लगी, वो मीरा जैसी रही होगी। इससे बहुत लोग नाचने लगे, बहुतों के जीवन में अकारण नृत्य उतरा था, इसे डांसिंग प्लेग कहा गया था।
जापान में लाफिंग बुद्धा हुए। उनकी हंसी संक्रामक हो गई, जो हंसी, नृत्य या प्रेम अकारण आने लगे, उसे कौन छीन सकता है?
परिणाम को देखकर, कारण आप ला रहे हैं, कि ऐसा हुआ होगा तभी वो नाच रही होगी, इत्यादि।
नृत्य और हास्य गीत हैं, सब कुछ अकारण ही मिला हुआ है। अहंकार का दूसरा नाम कारण प्रभाव है, अहंकार कारण और प्रभाव में ही गति कर सकता है। शुभ यदि बोध में आ गया है, तो जीना शुरू करें, कारण बाद में आ जाएंगे।
संदेह होना यानी हम सिकुड़े जा रहे हैं, उससे भय, फिर दुख, ये दुश्चक्र है।
अकारण नाचना शुरू करिए, फिर आपको नाचने के कारण मिलने शुरू हो जायेंगे। फिंग शुई विधा, की तरह लोग घरों में लाफिंग बुद्धा या नटराज की मूर्ति रखने लगे। आप ही हंसते हुए बुद्ध हो जाओ, तो ये अधिक शुभ घटना है। आप ही अकारण गाने, हंसने, या नृत्य हो तो शुभ हो जायेगा, बाहर ना भी हो, तो भीतर से तो ये हो ही सकता है।
जीवन की वो घटना जो मुझ से मुक्त है, वो गीत जो अकारण गूंजने लगा, उसका सौंदर्य अलग है। अकारण को कोई कैसे भंग करेगा। मंसूर अपने ही लहू से वजू कर रहे हैं, सफाई हो तो अपने ही प्राणों से ही हो। अमोघ प्रश्न उसी प्रसाद को उतरने को अवसर देता है, इसे खुद आजमा कर देखिए, किसी पर विश्वास मत करिए।
प्रश्र - मुझे भय लगता है, इससे बचने का क्या उपाय है?
एक चूहा एक साधु के पास गया कि मुझे बिल्ली से बहुत डर लगता है। साधु ने उसे कहा कि तुम बिल्ली बन जाओ। कुछ समय बाद वह फिर गया कि अब मुझे कुत्ते से डर लगता है तो साधु ने उसे कुत्ता बना दिया। फिर शेर बना दिया और अंत में शेर ने कहा कि मुझे शिकारी से बहुत डर लगता है। अब साधु ने कहा कि तुम चूहे ही अच्छे हो, तुम चूहा ही रहो। मैं का एहसास ही चूहा है, वो कुछ भी हो जाए, वो हमेशा डरेगा ही।
कुछ भी हो जाए डर वहीं का वहीं रहेगा। सभी डर रहे हैं, जो अकेला है वो डरता है, जो किसी के साथ है वो भी डरता है, जिसके पास पद, प्रतिष्ठा है या नहीं है, दोनों को डर है। आपका डर खत्म नहीं हो सकता, कभी शेयर मार्केट का डर है। भीतर जब तक चूहे की आत्मा है, जब तक मैं है, तब तक डर रहेगा ही रहेगा।
मैं से मुक्त जीना क्या है? क्या ये कोरी गप्प है? कहीं ये मनोरंजन का कोई साधन ही तो नहीं है? जांच में उतरिए, डर से मुक्त होकर जीना बिलकुल संभव है। जो लिया या दिया जा सकता है, वो क्षण भंगुर है। रमन या कबीर का क्या कोई छीन सका? कबीर पर कौनसा आरोप नहीं लगा? परमात्मा प्रसाद है, परमात्मा नहीं डरता है। मैं के पार का प्रसाद यदि उतर आया है, तो वहां डर नहीं रह सकता है।
हम एक दूसरे के लिए बैसाखी नहीं हैं, वैद्य हैं। जागरण, ध्यान, या प्रेम को अवसर दीजिए, ये सभी दुर्भाग्य को पोंछ देते हैं। अपने को पोंछ कर जो उपस्थिति है उसको बांटिए। नाम लिखने या नाम रटने से भय नहीं मिटता।
यदि जो कहा गया है वो आपने स्वयं सत्यापित कर लिया है, तो आप प्रभावित नहीं होंगे। तब आप सु-भावित हैं, तब आप भी शुभ देखने लगे, इस सत्य की जांच स्वयं करिए।
सत्य का पराग यदि चख लिया गया, तो प्रभाव फिर गिर जायेगा, सत्य का दर्शन प्रभाव का अंत है। सम्यक का संग करना उचित है। फिर सारी दुनिया कुछ भी कहे, आप निश्चिंत होंगे कि मेरे जीवन में तो यही सिद्ध है। तब उपस्थिति की कीमिया भी साथ होगी। नाच का स्रोत पकड़ो, मूल केंद्र पकड़ो। वो देखो जो मेरे जाने से भी समाप्त नहीं होगा, सुरती पकड़ो। हम साथ हैं और अपने पैर पर भी खड़े हुए हैं। कबीर साहब के कई प्रसिद्ध शिष्य हुए, उनमें से रविदास एक हैं।
आनंद को बुद्ध के अंत समय तक बोध नहीं हुआ ये एक व्यंग्य है कि किसी के निकट होने मात्र से कुछ नहीं होता। यदि बुद्ध, कबीर, रमन यह होश में जिए नहीं होते, तो हो सकता है होश क्या है उसका हमें आज भी पता नहीं चलता, और हम भी बेहोशी में कहीं बैठकर के शराब पी रहे होते।
एक होता है अकारण, एक होता है कारण से अतीत, और एक होता है जिसके कारण तक ही नहीं पहुंचा जा सकता है। अतार्किक, तर्कातीत और एक होता है अपनी भूमिका को छोटा समझ लेना, फिर तर्क विकर्त अतर्क सब छूट जाते हैं।
कभी भिखारी को भी परम हंस समझ लिया जाता है, या कभी परम हंस को भी भिखारी समझ लिया जाता है।
अकारण में बड़े झांसे हैं, अकारण प्रेम ही सही प्रमाण है। यदि जीवन में अकारण जागरण है तो पद को हासिल करना, रिश्ता, धन आदि ये बात ही बहुत छोटी हो गई। बात छोटी हो गई क्योंकि, भीतर जीवन विराट हो गया है।
बुद्धि एक कंप्यूटर है, और कंप्यूटर एक रास्ता निकाल देगा जो सब धर्मों से बेहतर हो सकता है, पर उसमें जागरण और प्रेम नहीं डाला जा सकता है।
आज कहे मैं काल भजू काल कहे फिर काल।
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल।।
कबीर यह मन लालची, समझे नही गवांर। भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।
आज कल करते हुए अवसर चला जाता है। कुछ भी पोस्टपोन मत करिए। अंतर्वस्तु और ढंग या ढर्रा दो बातें हैं। आज जो कल के लिए टाला, तो यह एक ढर्रा बनता चला जाता है।
काची काया मन अथिर, थिर थिर काँम करंत।
ज्यूँ ज्यूँ नर निधड़क फिरै, त्यूँ त्यूँ काल हसंत॥
निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार। यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार।।
यह तन जल में उठते हुए बुदबुदे जैसा है। हम आप कभी भी समाप्त हो सकते हैं, राम यानी मैं से मुक्त के प्रति चेतिए, राम के साथ गलबहियां डालकर के चलिए।
संभले पांव ही नृत्य कर सकते हैं। मौन गीत है, बोलना कर्कश है। एक है लड़खड़ाते हुए चलना, और दूसरा है कि पांव संभलने लगे। जब फिसलन कम होने लगी फिर वो नृत्य है, अंत को जीवन में अवसर दें।
अमोघ प्रश्न से कूड़ा बाहर फेंकते चलिए। उपस्थिति ही कालातीत है, जो मिले उसे साझा कीजिए, उसे बांटते चलिए। खुशी, होश, प्रेम मिले वो बांटते रहिए, यानी यह बिना बांटने वाले की इस कीमिया को जरूर साझा कीजिए।
बुद्ध कैसे कहीं जा सकते हैं। सभी वर्गीकरण हमारी बुद्धि के ही बनाए हुए हैं। जो वर्गीकरण के पार होना है वो बुद्धि से कैसे जाना जा सकता है? हम आप उपस्थित ही कहां हो पाते हैं, उस उपस्थिति में जो बुद्धि के पार है।
हमारे लिए बुद्ध, कबीर का होना द्वार या रास्ते की तरह है। इनकी उपस्थिति पहले भी थी, और उपस्थिति उनसे भी मुक्त है। जैसे वो गए हैं, हमें वो रास्ता सहायता दे देता है। आज फिर इसी मैं की मृत्यु के साथ जीते हैं।
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Ashu Shinghal
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