जो भी जीवन सामने प्रकट है, उसमें पानी हो जाइए।
प्रश्न - मैं जीवन में बहुत असफल हुई हूं, मेरी मर्जी से हुए असफल विवाह की वजह से माता पिता ने भी मुझे छोड़ दिया है, जीवन में बहुत दुख है, क्या करूं?
पानी का अपना कोई आकार नहीं होता है, उसका आकार वही होता है जिस बर्तन में उसे रखा जाता है। तुम जीवन में आने वाली चुनौतियों को नहीं बदल सकते हो, पर तुम पानी जैसे क्यों नहीं हो सकते हो? कुल समस्या इतनी ही है कि जब जीवन तुम्हारे सामने पात्र बदलता है, तो तुम किसी अन्य पात्र का आग्रह पकड़ लेते हो। जब जीवन का आकार थाली जैसा होता है, और तुम्हारा आग्रह है कि नहीं यह आकार तो कटोरे जैसा होना चाहिए, तो दुख ही होगा।
जो रिश्तों की पिछली तस्वीर थी, उन रिश्तों की पुरानी तस्वीर को तुम्हारा आग्रह क्यों पकड़े हुआ है? जीवन का प्रवाह सहज है और वह अलग-अलग पात्र प्रस्तुत करता रहता है, उस पर जो पुराने संयोजित पात्रों का आरोपित आग्रह है, उसे ही मैं कहते हैं, वही मौलिक दुख है। जीवन का सहज प्रवाह किसी आकार का नहीं है, बस जो हमारे अंदर आभासीय आग्रह बन गया है, वह जीवन के सहज प्रवाह में अड़चन पैदा करता है।
ज्ञात के पात्र से अज्ञात के पात्र में जाने के लिए, ज्ञात के पात्र के जितने ढंग थे, वे अब अड़चन पैदा कर रहे हैं। दुख जीवन को नहीं हो सकता है, दुख पात्रों के आग्रह में है; यह सनातन धर्म है। जीवन पात्र शून्य है, जीवन पानी जैसा है। मौलिक जीवन के ऊपर एक आभासीय चीज बन गई है, मैं की अपनी अलग सत्ता के रूप में, वह दुख है। पानी हो जाना धर्म है, एस धम्मो सनंतनो। यह मत सोचिए की आप ही दुखी हैं, जिसने भी किसी पात्र का आग्रह या सांचा पकड़ा हुआ है कि जीवन इस तरह से होना चाहिए, वह अनिवार्य रूप से दुखी होगा।
ना चुनौतियां या पात्र दुखी होता है, और ना ही पानी या जीवन दुखी होता है; इनके बीच में जो एक आभासीय आग्रह बन गया है, वो दुखी होता है। कितनी भी गहरी चुनौती हो यदि आप जल जैसे हैं तो उसको भीद कर उसके पार निकल जाएंगे। कबीर साहब उस कीमिया को सैंया कह रहे हैं जो बिना आग्रह के है, जो जीवन से छेड़छाड़ नहीं करती, जो आग्रह को विसर्जित होने देती है। यानी जब पात्रों में आग्रह टूट गया, तो वह हरि का काज है।
मैं एक पात्र का आग्रह ही है, एक पूर्व निर्धारित संरचना ही है। यदि यह संरचना नहीं है तो जो रह गया वह कालातीत ही तो है, वह अशेष ही तो है। तो जल जैसे हो जाइए, जो भी जीवन का आकार सम्मुख है वही आकार ले लीजिए। यदि दुख है तो उसके साथ छेड़छाड़ मत कीजिए। बड़ी रहस्य की बात है कि यदि पात्रों का आग्रह नहीं है तो पात्र ही नहीं है; तब जीवन आकार के पार निकल जाता है। जब तक पात्रों का आग्रह है, तो पात्र बनते रहेंगे। पूरा जगत द्वैत में गति करता है, जो आप आग्रह करते हैं, वह ही आपको निर्मित करता है। कोई भी आग्रह, आग्रहकर्ता को निर्मित करता है, और आग्रहकर्ता, आग्रह को निर्मित करता है। यदि जीवन के पात्रों से मोह भंग हो गया, तो बात वहीं समाप्त हो गई; फिर जीवन पात्रों की लीला त्याग करके उसके पार निकल जाता है।
जो भी पात्र का आग्रह छोड़ कर जिया, वो लीला थी। यही महा सूत्र है कि जो भी जीवन सामने प्रकट है, उसमें पानी हो जाइए।
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जीते जी अमृत को उपलब्ध हो जाएं।
प्रश्न - एक बहुत प्रिय युवा और साधु मित्र की अचानक से मृत्यु हो गई है। कृपया मृत्यु पर अपने विचार साझा कीजिए।
जैसे हम जीते हैं, मृत्यु उसमें एक अकाट्य सत्य है; और यदि जीवन की समझ को अवसर दिया जाए तो मृत्यु अकाट्य रूप से झूठ है। जो मरता है, या जो मर सकता है वो जीवन नहीं है। क्या मरता है? शरीर में चीजें बदलती हैं, मरती नहीं हैं। शरीर एक प्रक्रिया है प्रकृति की, जिसमें परिवर्तन है। ऊर्जा एक आकार लेती है फिर उस आकार का विलय हो जाता है, यह दो ध्रुवों का खेल है। एक ध्रुव पर प्रकृति है, और एक ध्रुव पर पुरुष है। जो निराकार है, जो सबसे सूक्ष्म है, जब वह आकार से या स्थूल से, सबसे सघन रूप से मिलता है, तो जन्म हो जाता है। फिर वही प्रक्रिया विपरीत में चलती है, प्राण अपनी तरफ लौटता है, प्रकृति अपनी तरफ लौटती है, यह एक ही ऊर्जा के दो खेल हैं, लीला है।
ना प्राण मरता है ना प्रकृति मरती है, बस यह एक खेल चल रहा है। पूरे अस्तित्व में कहीं फूल खिल रहा है, कहीं फूल झड़ रहा है, यह पूरी एक ही प्रक्रिया है, इसमें मरा क्या? इसमें सिर्फ एक आभासीय ज्ञात की संरचना को, जिसे हम मैं कहते हैं, उसे मरने का भय होता है। बनावटी चीज को भय होता है, नैसर्गिक घटना को भय नहीं हो सकता है।
हम समझते हैं कि मेरे अंदर छवि के रूप में निर्मित व्यक्ति वही है, जो बाहर दिखाई पड़ रहा है। जबकि बात बिल्कुल इसके विपरीत है। शरीर एक वास्तविक घटना है, और हमारे अंदर चित्त में जो क्लोनिंग हो रही है, वह बिल्कुल एक आभासीय बात है। प्रकृति में केवल सौंदर्य व्याप्त है, उगता हुआ सूरज या डूबता हुआ सूरज, दोनों सुंदर हैं। यदि बिना नाम दिए, भोलेपन से, एक पत्ती को भी देखेंगे, तो जब वह पेड़ में लगी हुई है और जब सूख के गिर गई है, दोनों बातें बहुत सुंदर हैं।
जो बाहर घटना घट रही है और उसकी जो एक छवि हमारे अंदर बन रही है, इन दोनों को एक समझना ही मौलिक समस्या है। इनके संबंध को अटूट समझना, और इनमें भेद नहीं कर पाना समस्या है। एक घटना घट रही है जिसको हमने जीवित व्यक्ति कहा, उसके सापेक्ष एक छवि, एक व्याख्या मन में चल रही है। अब वह घटना किसी ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करी, उसमें परिवर्तन हुआ, जिसको वह छवि पकड़ नहीं सकती है। एक और घटना घटी जिसमें प्राण और प्रकृति विगलित हो गए, अपने अपने स्रोत की तरफ हो गए। जैसे ही यह बात मन के पार गई, तो यह मन कहता है कि यह तो मृत्यु हो गई।
केवल वह घटना मन की पकड़ से बाहर गई है, कोई भी घटना समाप्त नहीं होती है। मृत्यु अस्तित्व का सत्य नहीं है, केवल वह व्यक्ति हमारी यांत्रिक जैविक पकड़ से बाहर चला गया है। जितना हम अपने को समझ पाते हैं उतना ही हम जीवन समझते हैं, उसके बाहर जो है उसको कहते हैं कि वह मृत्यु है। इसलिए यह चित्त या आभासीय मन भयभीत रहता है, जब तक बोध में छलांग ना लग जाए।
हम न मरेँ मरिहै संसारा।
हम कूँ मिल्या जियावनहारा।।
अब न मरौं मरने मन माना, तेई मुख जिनि राम न जाना।
साकत मरैं संत जन जीवै, भरि भरि राम रसाइन पीवै॥
कबीर साहब कहते हैं कि यह जो आभासीय संसार है वह मारेगा, जो अहंकार, मन, बुद्धि ने जो कुछ भी छवियां रची हैं, उनकी मृत्यु होती है। यह मन, अहंकार सुरक्षा के सारे उपाय कर कर के भी असुरक्षित या आशंकित रहेगा। कबीर साहब वहां डुबकी लगा चुके हैं, जहां मन की पहुंच नहीं है, वहां से साहब कहते हैं कि मैं नहीं मरूंगा। यानी वहां कबीर साहब जाकर के, रहकर के, लौट आए हैं, अब बस उसकी रिपोर्टिंग कर रहे हैं।
हमने जिस आग्रह या क्षमता को जीवन समझ लिया है, वह क्षमता ही जीवन नहीं है। हम जो समझते हैं जो जानते हैं वही जीवन नहीं है, मन तो बस बाल की खाल को ही जीवन समझ लेता है। जीते जी यदि इस मैं की संरचना से भ्रम भंग हो गया, तो वही अमृत है, वह फिर अमरापुर में जीता है। कबीर साहब कहते हैं उस कीमिया को कि मुझे अमरापुर ले चलो, वह जहां मन नहीं पहुंच पाता, पर मैं राजी हूं उस तरफ चलने के लिए। यदि बेशर्त प्रेम घटे, तो वही ध्यान है, वही प्रार्थना है, यानी कोई भी परिस्थिति उस समर्पण को भंग नहीं कर पाए। यह प्रेम उसके लिए तो मृत्यु समान है जो सब कुछ हम आप जानते हैं, पर प्रेम में कोई मृत्यु नहीं है।
उपाय यही है कि जिसको हमने अपना जीवन समझा है, जिसको हमने दूसरे का जीवन समझा है, उसके साथ बिल्कुल भी छेड़छाड़ ना करें। उसके साथ मौजूद हों, और प्रश्न उठाएं कि वह जीना क्या है जो अंदर और बाहर, दोनों से मुक्त है? यानी जो अंदर और बाहर का पुल है, वह टूट गया, आप ठीक मध्य में हैं। यदि यह समझ उतर गई, तो मन के साथ-साथ मृत्यु समाप्त हो जाती है।
पहली बात मत करिए, पहली बात तो वह होती जब अहम बना ही ना होता। अब दूसरे सौभाग्य की बात तो यही है कि जीते जी मर जाएं, यानी जीते जी अमृत को उपलब्ध हो जाना। मरने के बाद कोई मोक्ष, कोई स्वर्ण नरक नहीं होता है। स्वर्ग, नरक, परलोक, ईश्वर, मोक्ष, निर्वाण आदि जैसा कहीं कुछ नहीं होता, पर सत्य अवश्य है। एकरस, अडोल, अकाल, असीम, अशेष, ही सत्य है, और वह अमृत अभी और यहीं पर है।
दूसरे की मृत्यु पर शोक मत करिए, अगर वह साधु है, तो साधु कभी मरता नहीं है। आप अपनी तरफ देखिए, क्या जीवन से आग्रह टूटा? क्या पानी की तरह हुए? पानी का होना हर स्थिति को पार कर जाता है। यदि आप पानी की तरह हुए तो अमृत को प्राप्त हो जाएंगे।
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ईमानदारी।
प्रश्न - इंद्रियों को जो अच्छा लगता है हम उस तरफ मुड़ जाते हैं, तो सत्य को जानने के लिए ईमानदारी है या नहीं है, यह पता नहीं चल पाता है?
आप क्या चाहते हैं की इंद्रियां किसी ओर ना मुडें, तभी आपकी साधना सही दिशा में चलेगी? यह बात सच नहीं है, जो भी हो, उसे जरा सा भी मत बदलो; नैसर्गिक रूप से जहां भी चित्त जाता है उसे जाने दो, जरा सा भी उसे मत रोको। तुम्हारा नैसर्गिक रूप से पतन की गर्त में जागा हुआ चित्त, उस व्यक्ति के चित्त से श्रेष्ठ है, जो पहाड़ की चोटी पर है पर सोया हुआ है।
यदि मंदिर में बैठकर के भी कामवासना का विचार चल रहा है, जिसे हम काफी निंदित करते हैं, पर यदि तुम उसके प्रति जागे हुए हो, तो वह पूजा हो रही है। और यदि मंदिर में बैठ करके राम-राम कहते हुए कोई व्यक्ति, यदि बेहोश है, तो वहां संसार ही चल रहा है। यहां कुछ भी शुभ या अशुभ नहीं है, मात्र जागरण का भेद है। परमात्मा यह थोड़ी कहता है कि अच्छे-अच्छे बनकर के मेरे सामने आओ, जो हो जैसे हो वैसे ही प्रस्तुत हो जाओ। जो हो जैसे हो, उसे बिना छेड़छाड़ के बस वहीं जागरण को अवसर दे दीजिए, वही सच्ची प्रार्थना है।
मन ही पूजा मन ही धूप,
मन ही सेऊं सहज स्वरूप।।
इसी मन से जो अनुपम है, उसकी सेवा, प्रार्थना, पूजा, आवाह्न हो रहा है। जागने के प्रति ईमानदारी रखना, जो हो जैसे हो उसके प्रति ईमानदारी से जाग जाना। यदि जाग गए तो वही ईमानदारी है और यदि नहीं जागे हो तो फिर ईमानदारी और बेइमानी की बात ही नहीं है। जो संत हैं वह तुमको अपने साथ ले लेंगे, यदि जो तुम्हारा तथ्य है तुम उसके प्रति जागे हो तो। सारी दुनिया तुम्हें गिरा दे पर एक जागा हुआ व्यक्ति यदि तुम्हें साथ में ले ले, तो वह अनमोल है। किसी भी तथ्य के साथ छेड़छाड़ किए बिना, जैसे हो वैसे ही चले जाओ। जैसे बालक अपनी मां के सामने पहली बार आता है बिल्कुल नग्न; ऐसे ही सब कुछ उघाड़ करके जागरण के समक्ष प्रस्तुत हो जाओ।
गौर से देखिए, कहीं मैं आपको मैनिपुलेट तो नहीं कर रहा हूं, या जो आपकी पुरानी अवधारणाएं हैं आप उनसे बाहर आ रहे हैं?
पूरी अपनी जिंदगी की ऊर्जा को समेटिये, इकट्ठा करिए उनको, जगाइए अपने विवेक को, और इस तरफ गति कीजिए; यही समझदारी है बाकी सब झांसा है। बहुत हुई लल्लो चप्पो, बहुत छला आपने, बहुत छले गए।
प्रश्न - इतने लोग आपके साथ चल रहे हैं, क्या इनमें से कोई सत्य के निकट है?
हां, पर यह मत पूछिए कि वह कौन है, यह मुझे जानने दीजिए। बेहतर यह है कि हम अपने ऊपर काम करते रहें। मैं किसी भी तरह के मैनिपुलेशन में विश्वास नहीं रखता, यदि यह कहा जा रहा है कि ऐसा है, तो ऐसा ही है। आप अपने को देखते चलिए, यदि यह जानना आपके हित में होगा, तो मैं जरूर साझा कर दूंगा।
सत्य तुरंत मिल जाए मुझसे चूक ना हो, यह भी सात्विक अहंकार का ही एक ढंग है। जो है, वहीं से चलना शुरू करें, जो नैसर्गिक रूप से होता है उसे होने दें, कोई आग्रह नहीं रखें कि होश बना ही रहे।
साधुवाद बैठक के लिए कुछ भी रचिये, अज्ञेय के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकट करने को। कुछ और नहीं तो एक फूल को, आकाश को भर आंख निहार आइए, और वही बता दीजिए। एक वृक्ष को भर अकवार भेंटा है, आलिंगन किया है, या अस्तित्व के प्रति दो बूंद आंसू गिरा दीजिए, वही कविता हो जाएगी। कुछ रचनात्मक भेंट लेकर के जो आपके जीवन से निकली हो, वो अस्तित्व को अर्पित कर दीजिए।
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