१) हम खुद गहरे अवसाद में हैं, विषाद में हैं, और दूसरों के जीवन में सुधार करना चाहते हैं। मूल मंत्र है कि जीवन ऐसा ही है, यह ऐसा ही है।
जो हम दूसरों के साथ करते हैं वही एक इको, प्रतिध्वनि की तरह हमारे पास लौट आता है। दूसरों के साथ कुछ करने के क्रम में हम जो बनते हैं, वही हमारे जीवन में पसरता चला जाता है। हम बेशक बहुत अच्छा होने का नाटक कर लें, पर हमारी वास्तविकता संबंधों में निकल कर के आती है।
२) कई बार हमें दिखता है कि किसी दूसरे व्यक्ति में कोई शुभता शेष नहीं बची, केवल आडंबर रह गया है। तो उसको देखें, और उसके दर्पण में अपने जीवन को भी देखें, कि कहीं ऐसा ही हम भी तो नहीं कर रहे हैं?
अगर विश्राम जीवन का लक्ष्य है, तो वह तो अभी भी हो सकता है। सबसे बड़ा परोपकार या अपने ऊपर उपकार यही हो सकता कि किसी के ऊपर निसर्ग से आती हुई धूप ना रोकें; क्योंकि दूसरा यहां कोई नहीं है। जितना आप दूसरे के जीवन में धूप रोकेंगे, उतना ही अंधियारा आपके जीवन में फैलता चला जाएगा। आप दूसरे के जीवन में धूप नहीं रोक रहे हैं, दूसरे के माध्यम से अपने जीवन में आने वाली धूप का प्रवेश रोक रहे हैं।
३) जीवन का सबसे बड़ा नियम यही कहता है कि जो है उसके साथ छेड़छाड़ मत करिए। ना तो दूसरे को उबारिए, ना ही खुद को ऊबारिए, यानी खुद को कुछ ज्यादा अच्छा बना करके प्रस्तुत करने की कोई आकांक्षा नहीं रखिए। सोने से जागने में कोई सुधार जैसी कोई चीज नहीं होती, सोना एक स्थिति है और जागना दूसरी स्थिति है। यदि आपको ऐसा लग रहा है कि पहले से आपमें कोई सुधार हो गया है, तो एक दुश्चक्र की प्रक्रिया में आप फंस गए हैं।
सबसे मौलिक महा सूत्र यही कहता है कि अपनी तरफ देखें, जो हैं, जैसे हैं, जहां हैं, बस जाग जाइए कि ऐसा ही है। यदि कुछ समझने की तरफ रुख नहीं है तो यह बड़ी शुभ बात है, क्योंकि फिर सारा का सारा रुख मुड़ गया जागरण की तरफ; यानी तुम्हारी भूमिका जीवन से समाप्त हो गई। जैसे ही समझने की पूरी चेष्टा से आप अपने आप को मुक्त कर देते हो, तो जो सम्यक होगा वह सहज घट ही जाएगा।
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