top of page
Image by NordWood Themes
Image by NordWood Themes

जो दीसै सो तो नाही है सो कहा न जाई - कबीर पद

Writer's picture: DharmrajDharmraj


कहै 'कबीर' सो पढ़ै न परलय


जो दीसै सो तो नाही

है सो कहा न जाई


बिन देखै परतीत न आवै

कहै न को पतियाना

समझा होय तो शब्दै चीन्है

अचरज होय अयाना


कोई ध्याबै निकारा को

कोई ध्यावै आकारा

या विधी इन दोनों ते न्यारा

जानै जाननहारा


वह राग तो लखा न जाई

मात्रा लागै न काना

कहै 'कबीर' सो पढ़ै न परलय

सुरत निरत जिन जाना


शब्द के भ्रामक ढंग से समस्या है।


एक फकीर सुईं को वहां ढूंढ रही थी, जहां उजाला था, वहां नहीं जहां वह सुईं खोई थी।

उस फकीर ने कहा यही बात मैं दुनिया की नहीं समझ पाती हूं कि जो चीज जहां खोई ही नहीं है, वहां उसे हम ढूंढ ही क्यों रहे हैं? सारी दुनिया दुख से मुक्ति या सत्य को खोज रही है, पर वहां नहीं खोज रही है, जहां सत्य छुपा बैठा है। हम सत्य को कल्पनाओं में खोज रहे हैं, अपने हृदय में नहीं खोज रहे हैं। पीठ पर चोट लगी है, तो पेट पर मरहम लगाने से चोट ठीक थोड़े ही हो जाएगी। अंतस के संदर्भ में इस बात को पकड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। कबीर साहब का यह पद, पूरी तरह से शब्द के माया जाल को प्रकाशित कर रहा है।


जब हम सोचते हैं तब हम बनते हैं, हम आप विचार से बनते हैं, और विचार शब्दों से बनते हैं। जो हम बात करते हैं वह हमें निर्मित करता है, हम निर्मित होते हैं, तो ही हम बात कर पाते हैं। योजनाएं, दंभ, सफलता, असफलता, कुंठा आदि यह सब विचार या शब्दों से ही पैदा होता है। जब तक हम शब्द की अंतर्वस्तु को भली भांति नहीं समझ लेते हैं, तब तक सम्यक समाधान नहीं मिलेगा। मैं का एहसास शब्दों से पैदा हुआ, हम सोचते हैं, इसलिए हमारे जीवन में महत्वाकांक्षा पैदा होती है। समस्या शब्द के भ्रामक ढंग से पैदा हो रही है।


जो शब्द महत्वाकांक्षा पैदा करता है, वही ईश्वर और संस्थाओं को भी पैदा करता है। चाहे हम मुखर की तरफ जाएं, चाहे हम मौन की तरफ जाएं, यह दोनों ही बातें शब्द, विचार, या सोच से पैदा होती हैं। शब्दों को अदल बदल करके यदि हम समाधान ढूंढने जाएंगे, तो एक नई समस्या पैदा कर लेंगे। अकेलापन सोच से पैदा होता है, और दो तरह के 'अकेलापन' मिलकर के, समस्या को और भी बढ़ा देते हैं। शब्द के मूल स्रोत को समझने में, उसके निदान में ही समाधान पैदा हो सकता है। शब्दों की अदला बदली करने से कोई समाधान नहीं मिलता।


शब्दों में ही सत्य है।


कबीर साहब के शब्दों को बिना शब्दों की व्याख्या में उलझे हुए, वो शब्दों के पार की तरफ जो इशारा कर रहे हैं, यदि उसको ठीक से हृदय से सुन भर लिया जाए, तो वहीं जीवन समाधान को उपलब्ध हो जाएगा।


जो दीसै सो तो नाही, है सो कहा न जाई - हम वही देखते हैं, जो देखना चाहते हैं, जो देखने के लिए हम तैयार किए गए हैं। जो मुझे दिखता है वह दूसरे व्यक्ति को नहीं दिखता है, जब तक हम देखने वाले को एक तरफ सरका ना दें। कुछ प्राकृतिक मानक हैं, और कुछ मानसिक संस्कार हैं, जिनके अनुरूप हम सापेक्ष रूप से देखते हैं। जो हमें दिखाई पड़ता है, वैसा तो परम सत्य नहीं है, वो मौलिक जीवन नहीं है। और जो है, उसके बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता है।


एक तितली तक को भी हम नहीं जान सकते हैं, उसमें वह जीवन क्या है जो चांद सितारों से जुड़ा हुआ है, उसे हम परख नहीं सकते हैं। हमारे पास कुछ संस्कारित आंकड़े हैं, जिसके आधार पर हम केवल तितली की व्याख्या कर सकते हैं, पर वह तितली में बहता हुआ जीवन नहीं है। फूल में जो जीवन बह रहा है, जो अमृत है, उसके बारे में हम कुछ नहीं जान सकते हैं। वह जीवन जो हमारे पैदा होने से पहले था, जो हमारी मृत्यु के पश्चात होगा, और जो अभी घट रहा है, उसके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते हैं।


बिन देखै परतीत न आवै, कहै न को पतियाना - बिना देखे बिना सुने, हमें यकीन ही नहीं आता कि ऐसा कोई जीवन भी है, जो सभी तरह के दुखों से मुक्त है। हम इस बात पर संदेह नहीं उठाते हैं कि हमारे देखने की एक सीमा है। हमारा देखना भौतिक चीजों तक की सही प्रतीति हमें नहीं दे सकता है; पर हम समझते हैं कि जो चीज हम आंखों से देख सकते हैं वही सच है। अंतर्दृष्टि पैदा होने से यह पता चलता है कि केवल देखने मात्र से सत्य को नहीं जाना जा सकता है।


कबीर साहब कहते हैं कि हम तो व्याख्याओं को मानते हैं, पर जिसके बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता है, उसको कौन मानेगा? अधिकतर जो तथ्य है, हम उसके बिल्कुल विपरीत उस बात को समझते हैं। इतनी सी बात को बताना कि सत्य विचारों से परे है, संतो को विचारों का प्रयोग करना पड़ता है; क्योंकि सोच विचार के आधार पर जो बात खरी उतरती है, हम उसी को स्वीकार करते हैं। या फिर जो बहुत सारे लोग मानते हैं, हम उस पर अंधविश्वास कर लेते हैं। जब तक दिखया नहीं जाएगा, जब तक बताया नहीं जाएगा, तो कौन मानेगा, और जो भी दिखाया जाएगा या बताया जाएगा, वह सत्य नहीं है, इसलिए कबीर साहब उपाय भी बताते हैं।


समझा होय तो शब्दै चीन्है, अचरज होय अयाना - यदि कोई समझदार है, तो शब्द को पहचाने। शब्द यदि समस्या, अहंकार और विचारक को पैदा कर रहा है, तो इस विचारक की सही अंतर्दृष्टि में ही समाधान है। यदि समझने की संभावना है, तो हम शब्दों में ही सत्य को पहचान लेंगे।


वह राग तो लखा न जाई, मात्रा लागै न काना - कबीर साहब कह रहे हैं कि उसी शब्द से आप उस तरफ लौटिए, जिसमें ना मात्रा है ना कोई सुनने वाला है। बिना मात्रा के किसी भी अक्षर या शब्द का उच्चारण नहीं किया जा सकता है। यदि अक्षर या व्यंजन के साथ हम स्वर को नहीं लगाएंगे, तो उसका उच्चारण नहीं किया जा सकता है। किसी भी राग में एक धुन को लंबा खिंचा जाता है। कबीर साहब कह रहे हैं कि उस राग को सुनो जिसमें ना कोई मात्रा है, और ना कोई सुनने वाला है।


कबीर साहब कह रहे हैं कि जहां पर समस्या है, ठीक वहीं पर समाधान भी उपलब्ध है। यदि "क" अक्षर के साथ हम मात्रा नहीं लगाते हैं, तो "क" का जीवन आगे नहीं बढ़ सकता है, "क" अक्षर ही गिर जाएगा। राग में शब्द का जीवन बढ़ता है। अक्षर के जीवन को बढ़ाने के लिए उसको स्वर का सहारा देना पड़ता है। कबीर साहब उस तरफ इशारा कर रहे हैं कि वह अक्षर क्या है जो स्वर के बिना है, यानी वह अक्षर से उसकी तरफ ले जा रहे हैं जो अक्षय है। अक्षर के प्रकट स्वरूप को पकड़ कर के वह उस तरफ इशारा कर रहे हैं जिसका कभी क्षय नहीं होता।


कबीर साहब कह रहे हैं की मात्रा लगाए बिना अक्षर का उच्चारण करिए, और बिना सुनने वाले के राग को सुनिए। बिना मात्रा के और बिना कान के जिस राग को सुना जा सकता है, वह है असली अक्षर, वह है असल शब्द। यह असंभव प्रश्न है। हम जो भी जानते हैं वह शब्दों में जानते हैं, हमारे विचार शब्दों की लड़ियां हैं। यही विचार प्रक्रिया हमको बना रही है और हम इसी विचार प्रक्रिया की जुगाली कर रहे हैं। कबीर साहब कह रहे हैं कि वह विचार क्या है, जो बिना मात्रा और बिना कान के है?


विचार का ही प्रयोग करके कबीर साहब विचारातीत की ओर रास्ता दिखा रहे हैं। वह राग क्या है, जो बिना मात्रा और बिना कान के है? कबीर साहब विचार के द्वारा निर्मित जीवन शैली को एक साथ विसर्जित कर दे रहे हैं। इसमें सारे सांसारिक ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान, सारे अनुभव, सभी प्रतीतियों के साथ हम स्वयं भी विसर्जित हो जाएंगे। कबीर साहब कह रहे हैं कि निश्चित ही एक राग ऐसा भी है, जिसमें कान की कोई जरूरत नहीं है, जिसमें कोई मात्रा नहीं है।


समझा होय तो शब्दै चीन्है, अचरज होय अयाना - कबीर साहब कह रहे हैं कि यदि सम्यक समझ है, तो शब्द में ही वह पहचान जाएगा, और विस्मय बोध से भर जाएगा। अयाना का मतलब है रास्ता, मार्ग। जहां हम बार-बार निराश हुए हैं, कबीर साहब कह रहे हैं कि वहीं पर सच में ही वो मार्ग दिख जाता है, जो शब्दों की श्रृंखला से मुक्त है। यह एक ऐसा रास्ता है, जिसमें जन्म जन्म की प्यास बुझ सकती है।


वह राग क्या है जिसमें कोई सुनने वाला नहीं है?


कोई ध्याबै निकारा को, कोई ध्यावै आकारा - चाहे हम साकार का या निराकार का ध्यान करें, इनका जो आंकड़ा है वो हमारी बुद्धि से ही निर्मित हुआ है। हमें निराकार की प्रत्यभिज्ञा ही नहीं हो सकती है।


या विधी इन दोनों ते न्यारा, जानै जाननहारा - जिसको जानने की प्यास है वो इन दोनों से भी जो परे है, जो इन झांसों से न्यारा है, उसे जान सकता है। जो समझदार है उसकी इस शब्दों को जांचने की विधि से उसमें गति हो सकती है, जो शब्द का स्रोत है, जो शब्दातीत है। जो बिना मात्रा बिना कान का शब्द है, उसको परखने में जो साकार और निराकार से न्यारा है, उसकी प्रतीति सिद्ध हो सकती है।


वह राग तो लखा न जाई, मात्रा लागै न काना - वह राग कान से सुना नहीं जा सकता है, कान वही सुन सकता है जो आवाज टकराहट या आहत से पैदा होती है। हम जो सुन सकते हैं वह अनाहत नाद नहीं है। अनाहत नाद में कोई चोट, कोई टक्कर नहीं होती है। कबीर साहब कह रहे हैं कि उस स्वर का पता लगाओ, जिसमें कोई सुनने वाला नहीं है। जब हम उस राग का पता लगाने जाते हैं जिसमें कोई मात्रा नहीं है, तो हम ही समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि हम शब्द हैं। जब तक हम बने हुए हैं, तब तक मात्रा वाला राग ही रहेगा। जब अन्वेषण उस तरफ आता है कि वह सुनना क्या है जो मात्रा, आहत, सुनने वाले से मुक्त है; तो अनिवार्य रूप से हमको समाप्त होना पड़ेगा।


हम जो अपने को प्रसाद समझकर जीवन पर आच्छादित हैं, यह कीमिया उस धुंध को जड़ मूल से हटा करके, वहां सत्य को भासित होने का अवसर दे देती है। वह राग क्या है जिसमें कोई सुनने वाला नहीं है, इस असंभव प्रश्न की वेदी पर हम भस्मीभूत हो जाते हैं। यदि हम नहीं हैं, तो वहां पर जो है वो सत्य है। इसके लिए बस एक ही चीज की आवश्यकता है कि हमारे अंदर सत्य की प्यास होनी चाहिए।


हमारे अपने जीवन में ही यह गवाही आएगी कि ऐसा जीवन है जो दुख से मुक्त है, दूसरा कोई आपके लिए इस बात को सिद्ध नहीं कर सकता है। दूसरे किसी की बात यदि हम मान रहे हैं, तो हम अंधविश्वास में जा सकते हैं। जो दिखता है, सुनाई पड़ता है, यदि मैं उसी को प्रमाण मान लूं, तो बात दूर तक जाती नहीं है।


कहै 'कबीर' सो पढ़ै न परलय, सुरत निरत जिन जाना - कबीर साहब कह रहे हैं कि यह जो बिना मात्रा, शब्द का जो राग है, इसके जाने बिना जीवन प्रलय में चला जाता है। इस मात्रा के बिना राग को जिसने पढ़ या जान लिया, बूझ में उतर गया, जो कहा नहीं जा सकता है यदि वह सुन लिया, जो देखा नहीं जा सकता है यदि उसे देख लिया; तो फिर वहां विनाश या प्रलय नहीं होती है, यानि वहीं बात समाप्त हो गई।


झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।

खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।।


ख़लक यानी जगत, लोग, कुछ काल के मुंह में हैं, कुछ मुट्ठी में हैं, कुछ गोद में हैं, अन्यथा सब कुछ समाप्त ही होने वाला है। जगत तरैया भोर की, यह जगत सुबह के तारे के जैसा है; ऐसे ही पूरा जीवन झांसे में समाप्त हो जाता है। हमारी मृत्यु भी लगभग मूर्छा में ही होती है। जहां पर भी हम अभी हैं, वहीं पर कबीर साहब ने रास्ता दिखाया है।


सुरत का अर्थ होता है ध्यान का शुरू होना, ध्यान का लगना, और निरत का अर्थ होता है सम्यक समझ का घट जाना, लीन हो जाना, बूझ का उतर जाना। सुरत और निरत में कोई अंतराल नहीं है। ऐसा नहीं है कि पहले सुरत लगेगी, फिर धीरे-धीरे निरत आएगी। सुरत और निरत एक ही बात के दो नाम हैं, सुरत से निरत की कोई यात्रा नहीं है, इनको एक साथ जाना जाता है। वह राग क्या है जो मात्रा से मुक्त है, इस प्रश्न के उठाने में ही यह प्रश्न सिद्ध है। यदि हम इसको सिद्ध करने का प्रयास करेंगे, तो कभी भी निरत को नहीं पहुंचेंगे।


कहने सुनने में ही सुरत निरत यदि उतर गई, तो फिर उसका प्रलय नहीं होता, वह फिर अमृत को प्राप्त हो गया, जिसका प्रलय हो सकता था वह सदा के लिए समाप्त हो गया। समझने की शुरुआत में ही समझने का अंत है। मन की पूरी संरचना दिखने में ही, मन समाप्त हो जाता है। हमारे सारे रिश्ते नाते, उपाधि, धन संपत्ति, विनाश को प्राप्त हो जाते हैं, वह विनाश के गर्भ में जाने ही वाले हैं। जिसमें थोड़ा सा विवेक जगा है, वह इसके पढ़ने में ही प्रलय से मुक्त हो जाता है; इसके पढ़ने में ही सुरत निरत का जागना है।


यह सोच विचार और मैं जीवन नहीं है, यह बताने की तरकीब है की एक राग है, जिसमें कोई मात्रा नहीं है।


जीवन आंकड़ों, सोच विचार से मुक्त है।


प्रश्न - विचारों के बार-बार आने से मन डरा रहता है।


जिस धरातल पर डरना घट रहा है, जो डर रहा है, और जिस वजह से डरा जा रहा है; इन सबको बिना अलग अलग बांटे क्या एक साथ देखा जा सकता है। बिना इससे मुक्त होने की चाह के साथ, बिना इस विचार के कि मुझे इससे मुक्त होना है, क्या इसे देखा जा सकता है। यह देखने भर से हम पाएंगे कि हम इससे मुक्त हो गए।


प्रश्न - इतनी सारी सूचना होने के बाद भी जीवन फीका क्यों है?


सूचना का जगत सुविधा के लिए तो ठीक है, पर यदि वह रिश्तों में, जहां जीवन घट रहा है, वहां प्रवेश करता है तो वह घातक है। जैसे यह व्यक्ति बिना आधार कार्ड के भी जी सकता है, आधार कार्ड बनाने से यह व्यक्ति नहीं बन जाएगा। आंकड़े जीवन नहीं है, जीवन आंकड़ों, सोच विचार से मुक्त है। मैं एक आंकड़ा हूं, और जो मैं जीवन आंकड़ों में समझ रहा हूं, वह एक गहरा सम्मोहन है। इसको स्पष्ट देख लेना अध्यात्म है, और यही सभी दुखों से मुक्ति है, उतना ही हम शोषण और पर-निर्भरता से मुक्त होते चले जाएंगे। हमारा सम्मोहन ही विरोधाभास को पैदा करता है। आंकड़ों से हम जीवन या प्राण तक नहीं पहुंच सकते हैं।


यदि हम मात्रा हटा दें, तो न अक्षर बचेगा ना शब्द बचेगा, मात्रा उसमें प्राण डालने का काम करती है। यदि हमने मात्रा हटा दी तो हम नहीं बचेंगे, अहम मात्रा से बनता है। इस पद में कबीर साहब ने मानसिक निरंतरता को ही भंग कर दिया है। बिना मात्रा के और बिना कान के जीवन क्या है, यह बड़े-बड़े ज्ञानी भी समझ नहीं पाते हैं। कबीर साहब चित्त के पार का जो जीवन है, उसकी तरफ इशारा कर रहे हैं। चित्त थोड़ा आराम दे सकता है, पर समाधान नहीं कर पाता है। कबीर साहब सम्यक चिकित्सक हैं, वो रास्ता बना रहे हैं, मन के पार जाने का। वो एक द्वार बन जाते हैं, मन के पार जो जीवन है उस तरफ जाने का।


हमारे सारे शब्द मन के द्वारा बनाए गए हैं, असल जीवन में कोई अक्षर नहीं है। पेड़ जो घटना है, वह पेड़ शब्द से व्याख्यायित नहीं होती है। कबीर साहब कह रहे हैं कि वह शब्द बिना मात्रा के, और बिना शाब्दिक ज्ञान, संस्कार के है। सुनने वाला संस्कारों से बनता है, और जो सुनाई पड़ रहा है, उसको डिकोड करता है। सुनने वाला मस्तिष्क में एक ज्ञान की तरह बैठा है। बिना ज्ञान के सुनना, बिना सुनने वाले के सुनना, इस तरह कबीर साहब बिल्कुल निराली बात कह रहे हैं। वह तरकीब बता रहे हैं हमारे इस पूरे क्रियाकलाप को भंग करने की।


जिस मौन का हमें पता चल सकता है, वह वास्तव में मौन नहीं है। सूरत निरत जिन जाना, ध्यान की शुरुआत और ध्यान का अंत जिसने जाना, वही जीवन में उसको उपलब्ध हो सकता है। जो भी हमारे अंदर दमन है वही प्रकट होता है, दूसरा बस एक अवसर बन जाता है उसके प्रकट होने में। यदि हमारे अंदर कोई सोच विचार, तुलना का मानक ही नहीं है, तो ईर्ष्या पैदा ही नहीं होगी। दूसरे के व्यवहार पर समय खराब करने की बजाय, हम खुद ही एक रास्ता, एक समाधान बन सकते हैं। यदि हम रास्ता बनते हैं, तो दूसरे का भी कल्याण होगा, और हमारा खुद का तो कल्याण हो ही जाएगा।


8 views0 comments

Commentaires


bottom of page