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मुर्गी का उधार चुका देना - सप्ताहांत संवाद


सुकरात उन थोड़े से लोगों में एक हैं, जिनसे पूरी मनुष्य चेतना में नमक है। सुकरात ने मरने से पहले अपने मित्र को बुलाया और उससे कहा कि मैंने किसी से एक मुर्गी उधार ली थी, उसका मूल्य चूका देना। इस बात से उनका संकेत था की बुद्धि जो भी कर सकती है वह बहुत औपचारिक बात है, जो सत्य है, वह बुद्धि से न्यारा है।


यहां बिना कोई चोट पहुंचाये क्या उसको अवसर दिया जा सकता है, जो बुद्धि के द्वारा निर्मित नहीं है। हमारी भूमिका औपचारिकता में सीमित रहे कि यदि मुर्गी उधार में ली गई है, तो उसका भुगतान कर दिया जाए; पर जीवन या संबंधों में हमारी भूमिका हस्तक्षेप ना करे।


जो अपने जीवन पर काम कर रहा है, अनिवार्य रूप से वह तथ्य पर आएगा, और तथ्य में आकर के वह देखेगा कि वास्तव में उसके जीवन में क्या है, वह तथ्य से छेड़छाड़ नहीं करेगा। एक ज्योतिषी ने सुकरात में क्रोध, लोभ, राजद्रोह और सनकीपन तो देख लिया, पर उसके प्रति सुकरात की जो पावन दृष्टि है, उसको वह ज्योतिष पहचान नहीं पाया।


बाहरी जगत में शिक्षा महत्वपूर्ण है, शिक्षक नहीं। आंतरिक जगत में आचरण महत्वपूर्ण नहीं है, आप क्या हैं, उसका ज्यादा महत्व है। जागरण में यह देखना है कि हम प्रमुख हैं, या हमारे से पूर्व जो जागृति है, वह प्रमुख है; ज्ञात प्रमुख है या जो अज्ञेय है उसके हाथ में बागडोर है।


एक व्यक्ति सुकरात को उनके मित्र के बारे में कुछ बताना चाहता था। सुकरात ने उसके बताने से पूर्व ही उससे पूछा, १) क्या आपको पूरी तरह से पता है कि वास्तव में ऐसा ही हुआ है, यही सच है, २) आप जो बताने जा रहे हैं, क्या उसमें मेरा हित या उपयोग है, ३) जो आप बताने जा रहे हैं, क्या वह सबके लिए कल्याणकारी है। सुकरात की यह बात हो सकता है नीति के विरोध में हो, पर धर्म के साथ है। चोट कहीं भी लगती हो, चोट चोट ही रहती है, इसी तरह शुभता कहीं भी हो, वो सारी मनुष्य चेतना में साझा हो जाती है।


सुकरात यह सिद्ध करके गए कि ऐसा जीवन जिया जा सकता है, जिसमें कोई दुख, घाव या खटास ना हो।


प्रश्न - अधिकतर हम जरूरत का हवाला देते हुए, विलास में लिप्त रहते हैं? जीवन में आधारभूत ज़रूरतें क्या हो सकती हैं?


यदि जीवन के केंद्र में मैं हूं, तो मैं जो भी करूंगा, वह मेरी आधारभूत जरूरत है। यदि मैं विचार के द्वारा रचा बना गया हूं, तो व्यस्त रहना मेरी आधारभूत जरूरत है, और मैं निरंतर व्यस्त रहूंगा। फिर मेरे लिए विचार के द्वारा बनाई गई सुरक्षा संस्थाएं, बहुत महत्वपूर्ण होंगी। जितना अधिक पैसा होगा, उतना अधिक मैं सुकून महसूस करूंगा। जब तक मैं हूं, मेरी आधारभूत जरूरत निश्चित रूप से विचार के द्वारा बनाई गई चीजें होंगी।


जब हम मैं की जांच करते हैं, तो पाते हैं कि बिना मैं के भी तो जीवन घट रहा है। यानी विचार ही विचारक को पैदा करता है, और विचारक नए विचारों को निमंत्रण देता है। यदि हम इस अन्वेषण में आते हैं, तो आधारभूत ज़रूरतें सहज ही तय हो जाती हैं, फिर उनको तय करने की कोई जरूरत नहीं रहती। आजकल इतने संसाधन उपलब्ध हो गए हैं कि रोजमर्रा की चीजों के लिए चौबीस घंटा बुद्धि को दौड़ने की जरूरत नहीं है।


जब हम अन्वेषण करते हैं, तो पाते हैं की मौलिक जीवन आधार शून्य है। इस शरीर को बनाए रखने के लिए तो बहुत ज्यादा संसाधनों की जरूरत नहीं है, पर मौलिक जीवन तो वह है जो हमारी भूमिका से ही मुक्त है; जो जागरूकता है वही असल जीवन है। संग साथ या अकेलापन, यह सब बुद्धि का उत्पाद है, यदि यह स्पष्ट है, तो जीवन में भय, हिंसा, लोभ, प्रतिस्पर्धा, चिंता नहीं होगी। तब हो सकता है खुशी जीवन का सहज स्वभाव ही पाई जाए, जिसको प्राप्त करने के लिए सब उल्टे सीधे उपक्रम हम करते रहते हैं; हो सकता है ऐसे संबंध उघड़ करके आएं, जो नैसर्गिक हों।


यदि हम मैं को बनाए रखना चाहते हैं, तो जरूरतें कभी समाप्त नहीं होंगी। जितनी ज्यादा चीजें हमारे पास होती चली जाएंगी, मैं उतना ज्यादा जीवंत महसूस करेगा। यदि मैं की भूमिका नहीं है, तो जरूरत अपने आप पूरी हो जाएंगी। यदि ज्वलंत प्रज्ञा है, निर्दोष हृदय है, तो हम उस जीवन को अवसर दे सकेंगे, जो हमारे होने से पूर्व है।


प्रश्न - यदि हम स्वयं के बारे में कुछ जान ही नहीं सकते हैं, तो उसको जानने से अभिप्राय ही क्या है?


कोई व्यक्ति यदि स्वप्न देख रहा है और वहां आग से भयभीत है, यदि वह जाग जाता है, तो क्या हम पूछेंगे कि उसको जागने का क्या औचित्य है। यदि जीवन में दुख है, तो यह स्वाभाविक है कि जो मूल है उसको जांचा जाए? इसने दुख दिया है, उससे बेहतर यह नहीं है कि यह जांचा जाए कि दुख किसे है? जब हम यह जांचने जाते हैं कि किसे दुख है, तो पाया जाता है कि ऐसा कोई है ही नहीं। तब हम यह नहीं कहते कि जब वहां कोई था ही नहीं, तो उस तरफ देखने का क्या अर्थ हुआ? मेरे अपने ही सपने में खोए रहने के कारण दुख था, जब जाग गए तो ना सपना रहा ना दुख रहा।


प्रश्न - मन और शरीर में तालमेल कैसे बिठाया जाए?


कई बार दुख में रहने में ही मजा आने लगता है, और हम दुख से बाहर नहीं आना चाहते हैं। मन और शरीर को अलग-अलग करने के बजाय, हम यह देखें कि हम कौन हैं? हम किसे जीवन कह रहे हैं, जीवन के रूप में हमारी क्या भूमिका है? जीवन क्या सोचना, विचारना, अनुभव की कामना, आकांक्षा, पुराने अनुभव की जुगाली करना मात्र ही है?


क्या इस पूरे क्रियाकलाप को हम चुपचाप पढ़ सकते हैं। जैसे कोई जीवित किताब है, जब हम उसे पढ़ना शुरू करते हैं, तो वह अपने अक्षर बदलना शुरू कर देती है। मन एक जिंदा किताब है, जैसे जैसे उसे हम पढ़ेंगे, वह अपनी कहानी बदलता रहेगा, बदलती हुई कहानियों को भी क्या हम यथावत पढ़ सकते हैं? जीवन में चीजों का असंगत होना कहीं बाहर से नहीं हो रहा है, वह हमारे होने मात्र से ही हो रहा है। हो सकता है भीतर ऊब है, जिसको भरने के लिए अधिक मात्रा में भोजन खाया जा रहा है।


जैसे-जैसे हम जीवन की किताब को यथावत पढ़ते चले जाएंगे, हम पाएंगे कि जीवन की किताब समाप्त होने लगी। ना पढ़ने पर किताब बहुत बड़ी लगती है, जब पढ़ना शुरू करते हैं, तो किताब छोटी होती चली जाती है। एक दिन हम पाएंगे कि जीवन की किताब के सभी पन्ने कोरे हो गए; इधर पन्ने कोरे हुए, और उधर जीवन सुव्यवस्थित होने लगा।


प्रश्न - मेरे बच्चे में मोबाइल में लगे रहने की लत पड़ गई है, बच्चों की अच्छी परवरिश कैसे की जाए?


सबसे पहली बात यह है की हम स्वयं यांत्रिकता से मुक्त हो जाएं। बहुत सारी चीजें अचेतन रूप से हम उनको दे देते हैं, जो हमारे आसपास रहते हैं। हम यदि स्वयं मुक्त हैं, जीवन में होश को अवसर दे रहे हैं, तो रास्ता पा जाएंगे कि बच्चों को क्या मार्ग दर्शन देना है।


देखने वाला यदि अहंकार है, तो इसका जो लेखा-जोखा रख रहा है की कुछ नहीं है, वह भी अहंकार ही है। इसको भी देखें कि वहां कुछ नहीं पाया जाता है, यह देखें कि यह कौन कह रहा है कि वहां कुछ नहीं पाया जाता है।

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