उस पार के बंधु (कविता)
मैं उस दौर का मानुस हूँ जिसकी स्क्रीन पर प्रेम पढ़ा और लिखा जाता है जिसकी ज़ुबाँ पर प्रेम प्रेम दुहराया जाता है भावों से भंगिमाओं से...
उस पार के बंधु (कविता)
हे देह अदेह से न्यारे प्रियतम्
कभी मिलने आना मुझसे
आहुति
इति उवाच
तथागत मुझे ले चलो
अबोध अर्पण । ।प्रभु ज्यों ज्यों तुम्हारी चौखट पर मेरे प्रत्यंग तक गल रहे हैं मुझमें उमड़ उमड़कर बाध कृतज्ञता हिलोरें लेती है अपनी हर आहुति में मैंआनंदमग्न विभोर हो जाता हूँ उस अबा