ग़र बाशिंदे होते
यहाँ हमारी क़ब्रें नहीं आशियाने होते
मुसाफ़िर होते
तो सब सरायें घर होती
या सब घर सराय होते
कहीं हम बबूले तो नहीं
जो पत्थरों को घिसते हैं
आँखों में सतरंगी तैर जाते हैं
लहरों की सवारी ताउम्र करते हैं
फिर बिला आवाज़ बने रहने की जुगत में
अपने ही दाब से एक दिन
पक्क से फूट जाते हैं
धर्मराज
07/11/2024
(तिरुवन्नामलाई)
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