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कछू नहीं पहचनियाँ - कबीर उलटबासी


संतन जात न पूछो निरगुनियाँ

साध बाभन साध छत्तरी 

साधै जाती बनियाँ


साधन माँ छत्तीस कौम है 

टेढ़ी तोर पुछनियाँ

साधै नाऊ साधै धोबी 

साध जाति है बरियाँ


साधन माँ रैदास संत हैं 

सुपच ऋषी सो भँगियाँ

हिन्दु-तुर्क दुई दीन बने हैं 

कछू नहीं पहचानियाँ


संतन जात न पूछो निरगुनियाँ

साध बाभन साध छत्तरी 

साधै जाती बनियाँ


इस पद का शाब्दिक अर्थ है कि संत जो है उनकी जात नहीं पूछनी चाहिए, क्योंकि वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया, किसी भी वर्ण में हो सकते हैं। 


टेढ़ी तोर पुछनियाँ - कबीर साहब कह रहे हैं कि तुम्हारा पूछने का ढंग ही गलत है, सीधे सीधे क्यों नहीं पूछते हो। हमको चाहिए दुख से मुक्ति और कहते हैं कि हमें ब्रह्मज्ञान दे दीजिए। 


संतन जात न पूछो निरगुनियाँ - हम किसी की जाति इसलिए पूछते हैं क्योंकि हम सीधे-सीधे किसी भी जीवित व्यक्ति से संबंध को जीने में, किसी से अकारण जुड़ने में असमर्थ हैं। इसलिए हम किसी की आय, व्यवसाय, किसी का ज्ञान, उसका गुरु, धर्म, आदि, इन सब बातों से किसी को तय करते हैं कि उसके किसी ढर्रे से हम जुड़ सकते हैं या नहीं। 


कबीर साहब संतो को संबोधित करते हुए कहते हैं कि निर्गुण कि यदि पर प्यास है, तो फिर किसी साधु की जाति मत पूछो। किसी भी कारण प्रभाव लेकर के यदि हम अध्यात्म में जा रहे हैं, तो बात ज्यादा दूर तक नहीं जाएगी। हम संदर्भ, लक्ष्य, प्रपंच, किसी के कितने अनुयायि हैं, उसके आधार पर समझना चाहते हैं कि ध्यान क्या है। इसका अर्थ है कि सीधा-सीधा जीवन में जो दुख है, उसके प्रति हमारी सजगता नहीं है। यदि हम किसी प्रभाव के कारण आध्यात्म में हैं, तो हमारी दृष्टि ध्यान पर नहीं रहेगी। 


निर्गुण कि यदि प्यास है तो अपने अंदर या बाहर चलने वाली प्रक्रियाओं का विश्लेषण मत करो। जाति का एक अर्थ होता है जहां से चीजें जन्म लेती हैं। 


साध बाभन साध छत्तरी, साधै जाती बनियाँ - हर व्यक्ति के अंदर यह सब निरंतर घट रहा है। ब्राह्मण यानी बुद्धि से सूझ बूझ कर जो योजना बनाई जा रही है, जब किसी योजना को पूरा करने में हम लग जाते हैं तो उसे क्षत्रिय समझ लीजिए, जहां लाभ हानि पर जीवन में कवायद चल रही है उसको बनिया समझ लीजिए, और जहां पर मनोरंजन, हिंसा, बैर, नशे, भ्रम में जीवन घट रहा है उसे हम शूद्र का जीवन समझ सकते हैं। 


साधन माँ छत्तीस कौम है - एक ही व्यक्ति के अंदर छत्तीसों जातियां या अलग-अलग जो काम हैं, वह सब भीतर घटते रहते हैं। 


भीतर जो भी कुछ घट रहा है, क्या उसको ऐसे देखा जा सकता है, जहां कोई देखने वाला नहीं है। यानी ऐसा अवलोकन जो उस ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि घटना के द्वारा नहीं किया जा रहा है। जहां पर जो भी गुण घट रहा हो, क्या वहां पर निर्गुण अवलोकन, या गुणातीत उपस्थिति को अवसर दिया जा सकता है। वह अवलोकन क्या है, जो मेरी भूमिका से मुक्त है, तो बिना जात पूछे वहीं क्रांति घटित हो सकती है। 


कबीर साहब कह रहे हैं कि निर्गुण कि प्यास रखने वाले संतो, ब्राह्मण, क्षत्रिय या किसी भी जात में, निर्गुण को साधा जा सकता है। हमारे अंदर जो एक गुण से दूसरे गुण में निरंतर गति हो रही है, ठीक वहीं पर गुणातीत को अवसर दिया जा सकता है। 


टेढ़ी तोर पुछनियाँ - कबीर साहब कहते हैं कि हमारे जीवन में जो कुछ भी चल रहा है, उसपर टेढ़ी बात मत करो, सीधी बात करो। यदि अभी जीवन में व्यापार चल रहा है तो सीधी व्यापार की बात करो, इधर-उधर की बात मत करो। 


साधै नाऊ साधै धोबी - यदि हम किसी से कोई व्यक्तिगत सेवा देते हैं, अपना शोषण करवाने के लिए तैयार हैं, या जो किसी के आदेश को पूरा करने के लिए तत्पर रहते हैं, तो उसे कहते हैं नाऊ। हमारी जो ऐसी वृति है कि कोई हमें रास्ता बता दे, अपनी बुद्धि का इस्तेमाल नहीं करना है, तो हमारा यह नाऊ के जैसा व्यवहार है। कबीर साहब कह रहे हैं कि जब हमारे अंदर नाऊगिरी चल रही है, ठीक उसी समय वह अवलोकन क्या है, जो निर्गुण का है। यानी नाऊ वाली भूमिका से मुक्त होकर के जीना क्या है? 


अभी हमारा तथ्य है नाऊ की भूमिका, क्या उससे मुक्त होकर के जीना संभव है, या नहीं, सीधी सीधी बात करो। धोबी की भूमिका, यानी कि दूसरे को धोए पड़े हैं, चुगली निंदा में लिप्त हैं; जबकि हम खुद भी वही काम कर रहे हैं। दूसरे में छोटी छोटी गलती को देखते हुए हमें यह गलतफहमी हो सकती है कि हम तो बड़े उज्वल हैं। हम ऐसे ही तो काम करते हैं किसी का मतलब सिद्ध करना, या अपना मतलब सिद्ध करना। 


जब धोबी की भूमिका में हम हैं, तो उसे भी बदलिए मत। जब इनमें से कोई भी गुण हमारे अंदर चल रहा है, तो उसमें बिना फेरबदल किए, उसका ऐसा अवलोकन क्या है, जो किसी भी गुण से प्रभावित नहीं है? जो भी अभी का तथ्य है, उसमें वह निर्गुण अवलोकन क्या है, जो मेरी भूमिका से मुक्त है? मनुष्य चेतना में सभी गुण, सभी वर्ण एक साथ विद्यमान हैं। 


साध जाति है बरियाँ - बरियाँ यानी जो निजी नौकर के जैसा काम करते हैं। कबीर साहब का इशारा उस तरफ है, जहां हम किसी को नौकर बना लेते हैं, या किसी के नौकर बन जाते हैं। जो चीज हम दूसरे में देखते हैं, वह अनिवार्य रूप से हमारे अंदर ही भरी रहती है। दृष्टा ही दृश्य है, हम दुनिया में वही देखते हैं, जो हम स्वयं हैं। यदि जीवन का सच देखना है, तो देखने वाले से मुक्त होना होगा। यदि देखने वाले के रूप में हम हैं, तो जिस संस्कार से हम बने हैं, हम वही देख पाएंगे। 


साधन माँ रैदास संत हैं - चमड़े का काम करते हुए देखो कि रैदास निर्गुण, गुणातीत, विरक्त संत हैं। 


सुपच ऋषी सो भँगियाँ - सुपच महाभारत के समय के एक ऋषि हुए हैं, जो मल मूत्र उठाने का काम करते थे। कबीर साहब उस तरफ इशारा कर रहे हैं, जहां कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें केवल दोष, बुराई या गंदगी ही दिखती है, और कभी-कभी तो हम पूरे जीवन भर किसी को बुरा ही ठहरा देते हैं। यदि यही हमारा गुण है, तो उसको बदल करके ब्राह्मण का गुण बनाने में मत लग जाओ, कि अब से मैं दूसरे का दोष नहीं देखूंगा। यदि देखने वाला या करने वाला है, तो बात दूषित हो जाती है, फिर पावनता की तरफ गति नहीं है। निर्गुण को अवसर देने में जो होना हो, वो हो, यहां कोई आग्रह ही नहीं है। 


हिन्दु-तुर्क दुई दीन बने हैं, कछू नहीं पहचानियाँ - हिंदू, मुसलमान या जो भी बड़े धर्म हैं, इन्होंने पहचाना ही नहीं की रहस्य क्या है। किसी भी संगठित धर्म में क्रांति नहीं हो पाती है। सीधी बात पूछना या देखना यदि आ जाता है, तो वही अमृत है, तो वह गुणातीत हमारे अंदर उजागर जीवन के रूप में व्याप्त पाया जाता है। 


कृतज्ञता अकारण होती है। 


धन्यवाद हम किसी कारण से देते हैं, पर अनुग्रह बोध प्रसाद में मिलता है। जो किसी कारण से नहीं है, उसको अनुग्रह बोध कहते हैं, जो हमारी भूमिका से नहीं मिला है। जो देखने सुनने की शक्ति मिली है, उसके लिए मैंने कोई भुगतान नहीं किया था। जब यह दिखता है कि जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा मेरी भूमिका से मुक्त है, तो वहां कृतज्ञता जगह लेने लगती है, कृतज्ञता हमेशा अकारण ही होती है। 


संबंधों में कुछ भी हो रहा हो, सदैव अपनी तरफ देखते रहिए की इससे मुझमें क्या घट रहा है, यही मूल मंत्र है। अपनी तरफ देखते हुए, फिर जो आचरण व्यवहार आए, वह करिए। गुर्जियाफ़ कहते थे कि कुछ भी महत्वपूर्ण करना है, तो उससे पहले चौबीस घंटे अपनी तरफ देख लेना; ना निंदा करिए, ना स्तुति करिए, इससे बड़ी कोई साधना नहीं है। 


किसी दूसरे पर हमारी जीवंतता निर्भर है, ऐसे ही जीवन को हम जानते हैं। भय, भयभीत होना, और जो भयभीत हो रहा है, इस पूरी प्रक्रिया में सम्यक जीना क्या है, उसका शऊर ही हमें नहीं पता है। क्रोध को देखिए, उससे प्रकट पूरी जलन को देखिए, और कौन क्रोधित है उसे भी साथ में देखिए; यह असंभव प्रश्न काम करता है कि वह देखना क्या है, जो मेरी भूमिका से मुक्त है। 


पहला क्रोध की सारी संरचना को बिना निंदा स्तुति के देखने में ही उसका विसर्जन है; और दूसरा एक ऐसी कला जीवन में उतर रही है, जो बाहर या दूसरे से मुक्त है, जिसमें जीवन की रसामक्तता भीतर से आ रही है। जैसे-जैसे जीवन में नैसर्गिक रूप से रस उतरेगा, वैसे-वैसे बाहर जो विषयों पर निर्भरता है, वह समाप्त होने लगेगी। जब यह कहा जाता है कि वह कौन है जिसे क्रोध आ रहा है, तो क्रोध और जिसको क्रोध आ रहा है, वह एक साथ प्रकाशित हो जाता है।


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