जनम जनम के
(रोगी, भोगी, जोगी)
ख़ुद के प्रति देखते-सीखते स्वयं की दशा को यदि कहना हो तो कह सकता हूँ, यह तीन भागों में मुख्यतः गति करती है।
पहली दृष्टि है ‘रोगी’ की-
जब मेरे संबंध में, जीवन में बहुतायत दृष्टि दूसरे पर है। चाहे वह दूसरे के महिमामंडन में हो या खंडन में वह रुग्ण दृष्टि है। जो जीवन को भीषण अवसाद और विषाद में चुपचाप या गा-बजाकर धकेलती ही जाती है।
व्यक्ति अपने को ध्यानी, प्रेमी, बुद्धिमान, संवेदनशील चाहे जो कुछ भी समझता हो वह निरंतर पतित होता जायेगा। वह गुरु पूजा को, ईश्वर आराधना को, ज्ञान को खूब सटीक ढंग से साधता सा दिखाई पड़ सकता है। वह छिद्रान्वेषण में निष्णात हो सकता है। वह दक्खिन, बाम यह या वह पंथी हो सकता है, लेकिन इतनी बात तय है कि, वह भीतर खोखला, निर्मम, बेजान, निष्ठुर और सतत पापग्रही ही होता चलेगा!
दूसरी दृष्टि है ‘भोगी’ की-
ऐसी जीवन दृष्टि में व्यक्ति का बस यह रुख़ होता है कि, क्या भोग लूँ, कितना भोग लूँ, जो सब अच्छा-अच्छा है मुझे मिल जाये। जो बुरा-बुरा है, उससे भागता फिरूँ। ऐसा चित्त संबंधों का, जीवन का सतत निजी हित में उपयोग, दुरुपयोग करने में रत रहता है। उसका दूसरे के हित से बहुत मतलब नहीं होता है। होता है तो उतना, जितना आगे चलकर इसके हित में सहयोगी हो सके। वस्तुतः वह संबंधों में दूसरे का हित करता दिखता हुआ भी अपने हित का दूरगामी निवेश करता है।
ऐसा चित्त अपने में घुटा हुआ ही छीजता जीता है। जो भी हो यह फिर भी रोगी चित्त से बेहतर होता है। यह कम से कम हित तो कर रहा है। अपना ही सही; हित करने में वह कदाचित् कभी देख ले कि, निजी हित जैसा कुछ होता ही नहीं। हित सदैव समग्र से जन्म लेता है। ऐसा कह सकते हैं कि ऐसा चित्त बस अपनी परिधि पर गोल-गोल घूम रहा होता है। न वह पतित होता है, न वह उठ पाता है।
तीसरी दृष्टि है ‘जोगी’ की-
दुर्लभ है ऐसा साधु जिसकी दृष्टि अब जीवन के सत्य पर आ गई है। जो काव्यात्मक ढंग से कहें तो जिससे भ्रम में बिछुड़ चला था उस से जोग या मिलन पर आ पड़ा है।
सत्य के शुद्धतम अनुसंधान के लिए जिसने स्वयं को प्रयोगशाला बना लिया है। वह ख़ुद को जाँच में रख रहा है। ख़ुद के होने को ही वह चीरकर उस तल तक उतर रहा है, जहाँ से मिथ्या की सीमा दिख जाती है।
उसके लिए दूसरा दर्पण मात्र है, जिसमें वह स्वयं को पहचान रहा है, जाँच भी रहा है तो बिना अंकन (grading) के।
जीवन की बदलती स्थितियों-परिस्थितियों, आचरण-व्यवहार, बोलने में, चलने में चुप होने में बिना देखने का निष्कर्ष संकलित किए सदा ताज़ा ख़ुद को यथावत दिखने का अवसर दे रहा है।
इन तीनों दशाओं के मध्य दो संधियाँ भी हैं जो हठाग्रह की हैं या उत्क्रांति की हैं। जिसमें व्यक्ति जो है, उसी आग्रह के साथ बना रहता है या फिर क्रांति कर कभी भी जोगी हो जाता है। हाँ! रोगी-भोगी भले अपने स्थान बदलते रहें, जोगी पीछे नहीं लौटता!
जोगी अनागामी है, वह सत्य में डूब ही जाता है।
हम जब जैसे होते हैं, वैसे मित्र को हम मिल जाते हैं या वे हमें मिल जाते हैं।
वह हमारी सोच नहीं हमारा जीवन तय करता है कि, हम जनम-जनम के रोगी हैं और रोगी ही बने रहने के हठ में हैं। भोगी हैं, भोगी ही बने रहने के हठ में हैं। या फिर जोगी हैं, जोग रंध्र रंध्र से प्रवेश कर रहा है और रोम रोम से रस को भाँति उमड़ रहा है।
साधु हो!🙏
धर्मराज
Commentaires