१) जागरण जीवन के साथ साथ समूचे अस्तित्व का स्वभाव है, उसकी अभिव्यक्ति असंभव प्रश्न के माध्यम से जीवन में अवसर पाती है।
मैं यदि जीवन का मूल हूं, तो सारे युद्ध, विनाश, संताप का भी मैं ही मूल हूं। वह अटेंडिंग क्या है जो मैं नहीं कर रहा हूं, तो इस प्रश्न ने मैं की अटेंडिंग को निगल लिया, उसको सीज कर दिया। उसके बाद भी यदि उपस्थिति बची रह जाती है, तो इसका अर्थ है कि ऐसी उपस्थिति संभव है जो मैं नहीं कर रहा हूं। उपस्थिति को सत्यापित करने के लिए किसी अन्य सत्ता की जरूरत नहीं है, उपस्थिति आत्म सत्यापित है; क्योंकि जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं तब भी उपस्थिति वहां पर है ही। मैं ने जो आधिपत्य बनाया हुआ था, उसको जैसे ही सरका दिया गया, तो नैसर्गिक उपस्थिति को जीवन में अवसर मिल गया।
२) नैसर्गिक जागरण में आप पायेंगे की देह तक भी इसकी अभिव्यक्ति संभव है। मन, सोच विचार, सारी अभिव्यक्तियां जागरण में चल रही हैं। जीवन का विधाता या कर्णधार मैं नहीं हूं, जागरण है। मन, बुद्धि आदि को ऊर्जा किसी जानने वाले से नहीं मिलती है, अपितु जागरण मात्र से मिलती है।
पहले यह प्रश्न था कि मन शरीर को कौन जानता है, अब यह प्रश्न है कि किस जागरण से ऊर्जा लेकर के शरीर, मन, मैं आदि क्रियान्वित होते हैं। प्रबंधक को यह भ्रम पैदा हो गया कि मैं ही इस घर का स्वामी हूं। मैं असल मालिक नहीं है, जागरण असल मालिक है। असल मालिक जो अब तक धुंध में छुपा हुआ था, उसकी पहुंच अब शरीर तक है। अब प्रबंधक की जब जरूरत होती है, मालिक इशारा कर देता है।
सुविधा के लिए जो आवश्यक है उसकी जानकारी प्रबंधक को है। प्रबंधक ने एक मैं बना दिया था, जो मालिक बन गया था, अब वो मैं बीच से हट गया है। मैं जैसी कोई चीज अब मेरे आपके संबंध में कुछ नहीं करेगी; संबंध में अब सिर्फ जागरण की उपस्थिति है।
३) असंभव प्रश्न की कीमिया इस प्रश्न का सत्यापन करती है कि कैसे यह नैसर्गिक जागरण जीवन का आधार है; क्योंकि जब मैं भी विसर्जित हो गया तब भी जागरण पाया जाता है। असंभव प्रश्न से जागरण भी सत्यापित हो जाता है, जैसे वह जागरण क्या है जिसमें जागरण की कोई भूमिका नहीं है? वह जीना क्या है जहां जागरण की कोई भूमिका नहीं है? तब आप पाओगे की जागरण ही वहां पर मिलेगा, जैसे एक प्रकाश के पीछे दूसरा भी प्रकाश ही है। जबकि मैं के संदर्भ ये बात सही नहीं है; क्योंकि मैं के संदर्भ में जब यह प्रश्न उठाया गया तो वहां जागरण पाया गया।
जागरण के संदर्भ में चाहे कितने भी असंभव प्रश्न उठा लीजिए, वहां सिर्फ जागरण ही पाया जायेगा। इसलिए कह सकते हैं कि जागरण स्वयंभू है, निःप्रयास है; जबकि चेतन से अचेतन तक सतत चलने वाला प्रयास "मैं" है।
यहां जो भी बोला जा रहा है उसके पीछे जागरण उपस्थित है। और जो सुना जा रहा है वो ऐसे सुना जाए कि वह सुनना क्या है, जो मैं नहीं कर रहा हूं? असंभव प्रश्न के साथ ही जागरण वहां पाया जा रहा है, तो वहां प्रयास की कोई भूमिका रह नहीं जाती है। जब कहीं पहुंचना ही नहीं है, और जागरण स्वयंभू है, तो सारे प्रयास निरर्थक हो जाते हैं। धुंध को हटाने का भी कोई प्रयास नहीं चल रहा है, पर निःप्रायस जागरण में वह अपने आप गिरता जा रहा है।
४) वह जागरण क्या है जिसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है, तो प्रयास से बनी हुई धुंध छंट जाती है, और नैसर्गिक जागरण वहां पाया जाता है, जिसकी अभिव्यक्ति देह तक भी पहुंच जाती है। वह उपस्थिति क्या है जो मैं नहीं कर रहा हूं, इस प्रश्न के उठाने से मैं का भ्रम पुंछ गया, जागरण उबर करके आ गया, और जागरण की उपस्थिति रोएं रोएं में पसर गई।
कभी कभी नैसर्गिक जागरण की अभिव्यक्ति पर ख्याल की एक धुंध छा जाती है। यदि किसी को सच मिला, तो शैतान उसके दिमाग में एक ख्याल डाल देता है कि अब इसको बनाए रखना है, इसको संगठित करना है, और उसको बनाए रखने की चाहत में सच छूट जाता है। जागरण को कभी भी संगठित नहीं किया जा सकता है। जीवित चीज को संगठित करने का कोई उपाय ही नहीं है, केवल मुर्दा चीज को संगठित किया जा सकता है।
५) आदमी गुलाम बन गया है, वह जीवन भर ऑफिस या दुकान जाकर के काम करता रहता है, पैसा गिनता रहता है, क्योंकि उसको संगठित कर दिया गया है, उसको ऑर्गेनाइज कर दिया गया है। जो अशेष संभावना थी उसको छोड़ करके, कोई क्यों फाइव स्टार ऑफिस में बैठा हुआ है, क्योंकि उसको इस तरह से तैयार किया गया है। यह सारी अवास्तविक चीजें दिमाग में डाल दी गई हैं, क्योंकि वास्तविक चीज दिमाग में कभी डाली ही नहीं जा सकती है। यही अंतिम चाल चलता है मन कि कितनी असाधारण चीज तुमने खोज ली है, जागरण या होश, यही तो उपनिषदों में भी लिखा गया है।
जैसे ही यह सोचा गया कि इस जागरण को निरंतर बनाकर के रखा जाए, तो जो वास्तविक जागरण है, उसकी जगह जागरण शब्द आ गया। जो जागरण है, जो उसकी निर्बाध ऊर्जा है, वह तो जीवंत है, पर जागरण शब्द निर्जीव है। मैं जिस जागरण को प्रयास के माध्यम से बनाकर के रखना चाहता है वह मैं का जागरण है, वह वास्तविक जागरण नहीं है। असंभव प्रश्न से एक बार जागरण ने जगह ली, तो बात वहीं समाप्त हो गई, वहीं मृत्यु हो गई, उसमें फिर निरंतरता की कोई आवश्यकता नहीं है। एक बार जागरण ने जगह ले ली फिर उसको मन का सातत्य नहीं चाहिए।
६) पहले जब प्रमाद आता था तो उसका समाधान सोच विचार में ढूंढा जाता था, जागरण आने के बाद अगर प्रमाद आता भी है, तो उसका समाधान अंतर्दृष्टि में पाया जाता है। सहज जी प्रश्न उठा कि वह उपस्थिति क्या है जो मैं नहीं कर रहा हूं, वहां नैसर्गिक जागरण, अप्रमाद पाया गया, और वहीं उसका अंत भी हो गया। जो अभिव्यक्ति के उपकरण हैं, वह और भी ज्यादा संवेदनशील हो गए, ज्यादा सक्षम हो गए, तो असंभव प्रश्न की भी जरूरत नहीं रहेगी, और नैसर्गिक जागरण का आवाह्न वहां पर सहज पाया जायेगा। फिर आवाह्न भी हट जाएगा, और वहां पर केवल नैसर्गिक जागरण शेष रह जाएगा, और प्रमाद की संरचना सहज ही गिरती चली जाती है।
इस अवलोकन में प्रयास की कोई भूमिका नहीं बचती है। यदि दुख है तो उसके प्रति सजगता है, और असंभव प्रश्न के माध्यम से, नैसर्गिक जागरण का आवाह्न है। यह व्यक्ति यहीं पर समाप्त हो जा रहा है, असंभव प्रश्न के रूप में, और वहां नैसर्गिक जागरण को सहज ही अवसर दिया जा रहा है।
स्वयं का वह अवलोकन क्या है, जो निःप्रयास है, जिसमें कोई प्रयास नहीं है? अब इस निःप्रयास उपस्थिति को, प्रयास के द्वारा बरकरार रखने जैसी कोई चीज बची नहीं रहती है। यह नैसर्गिक जागरण जब भी घटेगा, जब भी उसका आवाह्न या अनावरण होगा, वह निःप्रयास ही होगा। मेरी वह अटेंडिंग या उपस्थिति क्या है जो निःप्रयास है?
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