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आधुनिक मन और निदान

Ashwin


यदि आप जो है उसे देख पा रहे हो, जो कहा जा रहा है उसे सुन पा रहे हो, अपने पैरों पर खड़े हो, सांस ले रहे हो, और जुबान से बोलना घट रहा हो, जहां पर यह सब हो रहा हो, तो जो भी तुम्हारे सामने है, वही तुम्हारा गुरु है।

 

जैसे जैसे बुद्धि बढ़ती गई, मात्र जीना, मात्र संबंधित होना, जीवन तल गिरता चला गया, जीवन का पतन होता चला गया। पशु पक्षियों में भी इतना द्वंद, संताप, शोक नहीं है। निर्द्वंद होकर के इंसान बस जिए, ऐसा नहीं पाया जाता है।

 

अब सवाल यह उठता है कि आधुनिक बुद्धिमान मन कैसे उस तरफ सरके, जो मन या बुद्धि से निर्मित नहीं है, जो यथार्थ है? मन हर चीज का आंकलन करना जानता है, पर जो चीज उपलब्ध ही है मन उसको यथावत, बिना कोई धारणा बनाए, जान ही नहीं सकता है। जिसमें कोई साधना नहीं है, कोई परिश्रम नहीं है, जो उपलब्ध ही है, मन उसको सीधे खारिज कर देता है। पर यदि कुछ करना हो, कुछ पाना हो, तो मन उसमें बहुत कुशल है।

 

अभी जो कहा जा रहा है क्या उसको उस तल से सुना जा सकता है, जहां केवल ध्वनि है, जहां से सुना जा रहा है? अब यदि मन की गतिविधि बीच में आ गई, तो आप इस तरह से सुनने का प्रयास करने लगेंगे। हम आप मन हैं, और यह मन एक प्रक्रिया (प्रोसेस) के रूप में ही काम कर सकता है। मन की प्रक्रियाओं से एक घटना निर्मित हुई है जिसका नाम है 'मैं', जो जीवन नहीं है, पर जीवन जैसा प्रतीत है। जो हम सोचते हैं वह जीवन जैसा है पर जीवन नहीं है, पर हमको वह जीवन जैसा दिखाई पड़ता है।

 

भाषा, भाषा से निकाला गया अर्थ, और जो प्रतिक्रिया है, यह सब संस्कारित हैं, पर जो ध्वनि है वह नैसर्गिक है, और यह जीवन है। आज का मन इतना चालाक हो गया है कि वह कितनी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज हो, कितनी भी शुद्ध शिक्षा हो, वह उसको प्रोसेस करने लगता है। किसी भी शिक्षा का मन की प्रक्रिया के द्वारा धारणा बना लेना, नकल करने जैसा है, वो आभासीय है, वो वास्तविक नहीं है।

 

बुद्धि के साथ-साथ प्रज्ञावान होना भी आवश्यक है, अन्यथा आप एक सच्चे संत के पास टिक नहीं पाएंगे। आप बुद्धि की प्रक्रिया से जो भी कुछ समझोगे, वह चीज वह नहीं है जिसकी तरफ इशारा किया जा रहा है। दृष्टा ही दृश्य है यदि आप यह बात सच कैसे हैं इसको जानने का प्रयास करेंगे, तो आप बुद्धि से उसको सीमित कर देंगे, जबकि यह वक्तव्य बिना किसी मन की प्रक्रिया के द्वारा ही जानना संभव है।

 

क्या ऐसा संभव है कि जो नैसर्गिक घटनाएं हैं, उनको बिना मन की प्रक्रिया का प्रयोग किए हुए, जीवन में अवसर दिया जा सके? चालक मन, जो भी कहा जा रहा है, उसका हुबहु आभासीकरण कर सकता है। आधुनिक मन हर एक चीज का निचोड़ निकाल देता है, एक धारणा बना देता है, फिर उसी को प्रक्षेपित कर देता है, और फिर उसको हासिल करने में लग जाता है।

 

मन हर चीज का विभाजन कर देता है, और जहां भी विभाजन होगा वह चीजें आपस में टकराएंगी। जो जीवन असल में अभी घट रहा है, उसके लिए किसी भी धारणा को हम स्वीकार ना करें। सुनने में, देखने में, जो भी कुछ बुद्धि से आरोपित है, क्या उसको पोछा जा सकता है? जो भी आवाज अभी कानों पर पड़ रही है, उसको बिना कुछ नाम दिए केवल उसका सुनाई पड़ना घट रहा है, क्या यह जाना जा सकता है? एक पंछी जब दूसरे पंछी की आवाज सुनता है, तो वह यह नहीं कहता कि यह कोयल की आवाज है। पंछी बिना नाम दिए सुनता है, पर उसको इस बात का होश नहीं होता।

 

हम यदि किसी चीज को बिना प्रोसेस किए सुन सकें, नैसर्गिक रूप से उसको वैसा ही देख सकें जैसा कि वह घट रहा है, तो वहां पर सहज ही अप्रमाद या बोध पाया जाता है। हमारी यह निष्ठा या मान्यता है कि जो संबंध हम बनाएंगे, वही हमारे बुरे वक्त में काम आएंगे। अप्रमाद में ऐसा संबंध उद्घाटित होने लगता है जो अपने आप रचा हुआ है, जो यह चालाक मन नहीं जोड़ता है। नैसर्गिक संबंध या जीवन पहले से ही अनबना है, जीवन अपने आप बह रहा है, बिना उसमें हमारा कोई भी हस्तक्षेप किए।

 

जैसे-जैसे दृष्टि जीवन के सूक्ष्म तलों पर जाती है, तो यह जो हमारी निष्ठा है चित्त पर, हमारे अपने परिश्रम पर, वह भस्म होती चली जाती है। यहीं से ऐसी जीवन धारा का स्रोत खुल सकता है, जिसमें कोई शोक नहीं है।

 

जीवन में प्रेम नहीं है, क्या करूं?

 

प्रश्न - जीवन में सब कुछ बिगाड़ लिया है, जीवन में प्रेम नहीं है, जीवन में कुछ प्यारा नहीं दिखता है। क्या करूं?

 

पुराना मन आशंकित रहता है इस बात को लेकर के की आगे क्या होगा, और वह सारी तैयारी पहले से करके रखना चाहता है। जिस चीज को आप दोहराते हो, वही आपको बनाती है, यानि वही आशंका आप हो जाते हो। और फिर वैसी ही परिस्थितियों को आप अपनी ओर आकर्षित करने लगते हैं।

 

अभी तक जो जीवन जीया गया है वह भ्रामक था, यह अंतर्दृष्टि अपने में ही प्रेम या होश है। जैसे ही यह विचार आता है कि यह प्रेम मेरे अंदर और कैसे विकसित हो, तो फिर वही पुराना ढर्रा वापस लौट आता है। देखने की जो यह ललक जागी है यह अपने आप ही घनीभूत होगी, हमें उसकी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

 

क्या एक से अधिक पुरुष या स्त्री से प्रेम घट सकता है?

 

क्या किसी पुरुष या स्त्री का एक से अधिक पुरुष या स्त्री से प्रेम घट सकता है, यदि ऐसा है तो उसको कैसे निभाया जाए?

 

प्रेम को हमने क्या समझ के रखा है? हम किसी व्यक्ति की देह, उपस्थिति, विचारों, ज्ञान आदि से आकर्षित हो सकते हैं, और उसको हम प्रेम का नाम दे देते हैं। हमारी असुरक्षा, परिग्रह, सुखद संवेदनाओं, मोह, भय, स्वार्थ, भावनात्मक रूप से जुड़े होना, इन सब को हम प्रेम मान लेते हैं। इस तरह के सारे लगाव संस्कारित हैं।

 

हम किसी व्यक्ति से आकर्षित हो जाते हैं, फिर उससे ऊब जाते हैं। आकर्षक, विकर्षण को संस्कारित करने की समाज द्वारा बहुत बार कोशिश की गई है, पर क्या यह सब सफल हो सका है? क्या यह सब प्रेम है?

 

व्यक्ति कोई वस्तु नहीं है जिसको आप जकड़ करके रख लें, व्यक्ति एक घटना है जो परिवर्तनशील है। व्यक्ति को यदि आप पकड़ कर रखने में सफल हो गए, तो वह एक पदार्थ हो जाएगा। जहां पर अनुशासन बहुत ज्यादा कठोर हैं, वहां पर व्यक्ति एक वस्तु की तरह हो ही गया है।

 

क्या इन सब चीजों को हम प्रेम कह रहे हैं, या प्रेम कोई और ही बात है? इस तरह तो आप एक के साथ रहिए या दस के साथ संबंध बनाकर के रखिए, दोनों ही प्रेम नहीं है। यह हमारा, आकर्षण, विकर्षण या ऊब है, जिसको हम प्रेम का नाम दे रहे हैं, प्रेम कुछ और बात है।

 

प्रेम को जानने के लिए हमें उसको जानना पड़ेगा, जो प्रेम करने का दावा करता है। मैं प्रेम करने का दावा करता आया है, पर उसके पास प्रेम करने की क्षमता ही नहीं है। मैं एक मशीन जैसी घटना है, उसको प्रेम नहीं हो सकता है। यदि उसको अवसर दिया जाए की वो जीवन क्या है, जो चित्त और बुद्धि में नहीं है, तो शायद प्रेम का पदार्पण हो पाए। जहां प्रेम का पदार्पण है, वहां पर ना एक है, ना ही अनेक है, वहां पर अनन्य है। अनन्य का अर्थ होता है, जहां दूसरा है ही नहीं। आप जो भी दूसरे के साथ करते हैं, वास्तव में गहरे तलों पर वह अपने साथ ही किया जा रहा होता है।

 

मैं एक के साथ रहूंगा, या मैं एक के साथ बंध करके नहीं रहूंगा, मैं स्वच्छंद रहूंगा, यह सारी चीजें, एक मानसिक प्रतिक्रिया, एक केंद्र से निकलकर के आती हैं। यह नैसर्गिक या यथार्थ जीवन या संबंधित होना नहीं है। जो प्रेम है वह तब पाया जाता है, जब मैं नहीं होता।

 

क्या सही है, क्या गलत है?

 

प्रश्न - जो जाना जा रहा है वह सही है या गलत इसको कैसे तय किया जाए, और कैसे आगे बढ़ा जाए?

 

आगे बढ़ने जैसा कुछ नहीं होता है, यह हमारी संस्कार बद्धता है जो कहती है कि आगे कहीं पहुंचना है। जो यह तय कर रहा है कि ये सही है या गलत है, वह उसी का उत्पाद है जो सही गलत है। यानी देखने वाला, दिखने वाली चीज, निर्णय लेने वाली संस्था, जो उलझन में है वह; यह सारी प्रक्रिया एक ही है।

 

सही गलत इतना महत्वपूर्ण नहीं है, पर जो जीया जा रहा है क्या वह असल धरातल है, या किसी काल्पनिक धरातल पर वह जीया जा रहा है? सपने में आप गंगा में डूब रहे हैं या किसी और जगह डूब रहे हों, दोनों बात बराबर हैं। सपने में आप अमीर हैं या गरीब हैं, यह दोनों बातें ही झूठ हैं।

 

दिखाई पड़ने की घटना वास्तविक है, नैसर्गिक है। पर जब मन बीच में आता है तो कहता है कि कोयल अच्छी पंछी है, कौवा अच्छा नहीं दिखता है। इस तरह दिखाई पड़ने में जो जीवन वास्तव में बह रहा था, उस पर एक आभासीय देखने वाला पैदा हो जाता है। क्या ऐसा संभव है कि जो दिखाई पड़ रहा है, उसको बिना सही या गलत ठहराए, उसके प्रति बस सजग हुआ जाए? किसी को सही या गलत ठहराने में हमारी निष्ठा अब भंग हो गई है। अब मैं सही विचार को अपनाने, या गलत विचार को हटाने नहीं जा रहा हूं। यहां जो हमारी अभीकल्पना से पैदा नहीं हुआ है, उसको जीवन में अवसर मिलने लगता है।

 

इस बात की परवाह न करें कि जो देखा जा रहा है, वह सही है या गलत है। मात्र जस का तस जैसा भी मैं हूं, उसको बस देखा जा रहा है, इतना ही काफी है। जब मैं और मेरा सोचना, मैं और मेरा देखना, इन दोनों से ही निष्ठा भंग हो गई, तो जो सत्य में निष्ठा है वह अपने आप अविर्भुत हो गई।

 

विचारों से कैसे मुक्ति मिले?

 

प्रश्न - विचारों से परेशान हूं, क्या कोई उपाय है जिससे विचार को रोका जाए या कम कर दिया जाए?

 

क्या हमारे अंदर वास्तव में ऐसी ललक है कि जो विचार से मुक्त जीवन है उसको अवसर दिया जाए? अगर कोई ललक नहीं है, तो इसका उत्तर सुनकर भी कुछ लाभ नहीं होगा। क्या आपने सच में देख लिया है कि विचार रेत चबाने जैसा है, उसमें से कोई रस नहीं पैदा हो सकता है? यदि इतना विवेक, मेघा प्रज्वलित हो गई है, तो फिर आगे बहुत आसानी हो जाती है। "क्या विचार से मुक्त होकर के जीया जा सकता है", इस विचार को भी यथावत देखा जाए।

 

विचार को हटाना भी विचार ही करता है, विचार के परे कुछ मौन है, उसकी कल्पना भी विचार ही करता है। एक प्रश्न अपने अंदर उठाइए कि क्या पूरी विचार प्रक्रिया से मुक्त होकर के जीया जा सकता है? इसका कोई उत्तर आया तो इसका अर्थ है कि एक विचार बैठकर के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है। यानी आग की चिंगारी आपने बचा के रख ली की इससे आग को बुझायेंगे। कोई विचार यह नहीं जान सकता है कि विचार से मुक्त जीवन क्या है। यह प्रश्न सारी विचार प्रक्रिया को एक साथ आलोकित कर देता है, और धीरे-धीरे विचार स्वतः क्षीण होने लगते हैं।

 

विचार समाप्त हो सकते हैं, पर जो हम समझते हैं कि हम बने रहें, और विचार मुक्त अवस्था का आनंद ले सकें, वो संभव नहीं है। चित्त को ना हमें दबाना है, ना उसे काटना है, कुछ ऐसा अवसर देना है, जिससे चित्त को यथावत देखा जा सके, जिसकी उपस्थिति में चित्त अपने आप रूकना शुरू हो जाता है। ज्ञान का हम आयोजन नहीं कर सकते हैं, पर यदि ललक है, सही प्रश्न उठाया गया, तो हम पाएंगे कि जीवन में ध्यान नाम की घटना सहज ही सघन होने लगी है। वह मौन जिसको विचार कभी नहीं जान सकता, वह जीवन में उतरना शुरू हो जाता है।

 
 
 

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