उसने न जाने कितनी यात्रा की है
न जाने कितने घरौंदों में उसने पड़ाव डाला है
न जाने कितने द्वारों से झूठी मुट्ठी बाँध प्रवेश किया
न जाने कितने द्वारों से ख़ाली हाथ बाहर आया है
यह ख़त्म सी न होती यात्रा क्यों है
पूरी यात्रा में बिबूचन खटकती रही कि
कौन है वह
कहाँ बढ़ता जाता है
आया कहाँ से है
यह ख़त्म सी न होती यात्रा क्यों है
रेत के कंकरों में अमृत सिक्त हो चला है
यह आज जब यज्ञ पूरा हुआ
तब उसे खबर हुई कि यह यात्रा न थी यज्ञ था
किसी महासागर ने उसका वरण किया है
उसकी क्षुद्रता की दीवारों में
क्षितिज उतर आया है
रेत के कंकरों में अमृत सिक्त हो चला है
अब तक जिस अपने होने को वह दुर्भाग्य समझता चला
उस एक मात्र दुर्भाग्य को
अस्तित्व के परम सौभाग्य ने भाँति भाँति से छेका था
बदली की तरह उमड़ घुमड़ सहेजा था
आज तब तक जब तक वह दुर्भाग्य
सकल सौभाग्यों तक का अतिक्रमण न कर गया
यज्ञ के पूर्णाहुति पर सम्मुख प्रकट
अमृत देव में महा समाधि से पूर्व
उसने पलट कर साधु कहने की अनुमति माँगी है
दोनों हाथ जोड़ वह पीछे देखता है
तो वह अपनी यात्रा के हर पग को
हर पड़ाव को
हर भटकाव को
अथाह कृतज्ञता से देखता है
पाता है वह
उसे उतने अनजान सहारे मिले
जितने से जाने पहचाने से ही सहारा मिलता है
यह वहम टूटता है
इतने जाने पहचाने धोखे मिले जितने से
सहारों के पार भी जीवन कलियों फूलों सा उगता है
यह साफ़ साफ़ दिखता है
उसे पाँव में उतनी ठोकर लगी
जितने से आसमान में देखकर चलते हुए
यह पता लगता रहे कि
आँखें भले आसमान को चूमें
चलने में पाँव ज़मीन ही चूमते हैं
उसकी पीठ पर उतना गहरा ख़ंजर घुपा
जितने से यह जाग पैदा होती है कि
जीवन में आँखों को सिर्फ़ सामने ही नहीं
देखने वाले के पीछे भी चौकन्ना रहना है
उसके इतने बन बनकर रिश्ते टूटे
बिगड़ बिगड़कर नाते जुड़े
जितने से पता चल सके कि
रिश्ता बनने बिगड़ने के पार बसता है
कोमल हो जाता है
उसे स्त्री ने अपनी कोख दी
दूध से सींचा
उसके सिर को गोद दी
माथे को चुंबन दिया
पीठ को आलिंगन दिया
कंधे को आँसू दिया
समर्पण दिया
वह सब उतना स्त्रैण दिया
जितने से थपेड़ों से कठोर होता होता व्यक्ति
सुकोमल हो जाता है
पुरुषों ने उसे अपनी बाँह दी
रीढ़ दी
उन्नत ललाट दिया
उतना संकल्प दिया
जितने से व्यक्ति धूल में से उठकर फिर
से खड़ा हो जाता है
वैर घृणा हिंसा ईर्ष्या मोह भोग त्याग
सारे भाव सकल विचार ठीक उतनी मात्रा में उसे मिले
जितने से मनुष्य ठीक ठीक
उस पात्र सा पकता है
जिसमें प्रेम सुधा बरस सके
डुबकी मारने को प्यासा हो जाता है
उतना दुःख दिया
जितने से व्यक्ति तिलमिलाकर
सपने से जाग सा जाता है
उतना सुख दिया जितने से जीवन के और गहरे तलों में
डुबकी मारने को प्यासा हो जाता है
हर चोट ने उसे गढ़ा
हर घाव ने उसे तराशा
हर मिले फूल ने हर अंगार ने उसे सहलाया और तपाया
वह कृतज्ञ है
उसके होने के रोएँ रोएँ से साधुवाद फूटता है
उसके जीवन में अब तक जो हुआ है
बिल्कुल सम्यक् हुआ
वही होना चाहिए था
अन्यथा तिल भर भी होता तो यज्ञ खंडित हो जाता
जितना जहाँ जब मिलकर उसे उस अविनाशी के द्वाउसे वह सब उतना मिला
वहीं मिला
तभी मिला
जितना जहाँ जब मिलकर उसे उस अविनाशी के द्वार पहुँचा सके!
अहो आज प्रेम के देवता ने
उसे हृदय से लगाकर आत्मसात् कर लिया है
अहो आज प्रेम के देवता ने
उसे हृदय से लगाकर आत्मसात् कर लिया है
अहो आज प्रेम के देवता ने
उसे हृदय से लगाकर आत्मसात् कर लिया है
धर्मराज
21/04/2024
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