अनुग्रहीत होकर भी मैं अनुग्रहीत
नहीं हूँ
तुम्हारी अपार कृपा को तो मेरे शब्द भी छेंक नहीं पा रहे
फिर भी मैं जानता हूँ
यह न छेंक पाने का अहसास भी छिपे ढंग से तुम्हें छेंकना है
यह न कह पाने को कहना भी मेरी अंतिम पुनरुक्ति ही है
तभी अनुग्रहीत होकर भी मैं
अनुग्रहीत नहीं हूँ
आँसू तो तुम्हारे स्मरण मात्र से छलछला पड़े हैं
फिर भी अनुग्रहीत नहीं हूँ
साफ़ जानता हूँ कि यह मेरे आँसू मैले हैं
उसी मुझ जूठे पात्र से उमड़े हैं
जिसकी स्वार्थपरक कृतज्ञता तो मेरे
मान में कहे
दो शब्दों से उमड़ जाती है
तुम्हारे दर पर मिले अबाध अकारण आशीष से
झुका माथ तो
गल गलकर मिटने की कगार पर आ पहुँचा है
फिर भी इस झुके माथ का क्या
यह तो जीवन की घुड़की से भी झुक जाता है
मैं यदि तुम्हारे द्वार की ओर संकेत करती श्रेयगामी सृजना बुद्धि में
स्वयं को थिर समझता हूँ
पर वस्तुतः ठूँठ काठ हूँ
मैं यदि हृदय में पुष्पन का दंभ भरता हूँ
पर यथार्थ में
अपने खिलने की ही संभावना को कुचलता फूल हूँ
तो भी जो हूँ जैसा हूँ जहाँ हूँ
जस का तस नग्न तुम्हारे सम्मुख हूँ
इस भाव से अनुगृहीत हूँ
फिर भी यह जानता रहता हूँ कि यह मेरा साक्षात्कार का ढंग
मेरा ही तो आवाहन है
इसलिए होकर आपूर अनुग्रहीत मैं
अनुगृहीत नहीं हूँ
धर्मराज
11/05/2024
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