१) बैठा रहै चला चहै चोख
बूझ बूझ पंडित मन चित लाय,
कबहिं भरलि बहै कबहिं सुखाय।
खन ऊबै खन डूबै खन औगाह,
रतन न मिलै पावै नहिं थाह।
नदिया नहिं साँसरि बहै नीर,
मच्छ न मरै केवट रहै तीर।
पोहकर नहिं बाँधल तहाँ घाट,
पुरइनि नाहिं कँवल महँ बाट।
कहहिं कबीर यह मन का धोख,
बैठा रहै चला चहै चोख।
२) बूझ बूझ पंडित मन चित लाय
हम अपनी पूरी प्रज्ञा अपनी पूरी मेधा लगा करके यह बुझें, यह जानें, यह पूरा मसाला क्या है, जहां इतने सारे झांसे हैं। उसको जागकर के देखो समझो, जिसको आप जीवन कह रहे हो।
बैठा रहै चला चहै चोख
खुद बैठे हुए हो और चाहते हो की चाल जो है, वह चोखी या श्रेष्ठ हो। आलस इतना गहन है कि हिलना नहीं चाहते हैं, और साथ में यह भी चाहते की सर्वश्रेष्ठ मिल जाए, शेखचिल्ली के सपने चल रहे हैं। हमें पूरा रास्ता नहीं दिखता है क्योंकि आंखों पर प्रमाद की पट्टी पड़ी हुई है, हमें लगता है कि हम चल रहे हैं, पर हम कोल्हू के बैल की तरह गोल-गोल ही घूमते रहते हैं।
अभी हम यह है और हम सोचते हैं कि हम वह हो जाएंगे, पर हम हो क्या जाएंगे, इसी को गोल-गोल घूमना कहते हैं। कामना बहुत है पर उस कामना की पूर्ति के लिए जिस चीज की आहुति देनी चाहिए, उसकी आहुति देने के लिए कोई तत्परता नहीं है। हम सोचते हैं कि परिवार संस्था, पैसा, संबंध सब सुरक्षित रहें, और जो सर्वश्रेष्ठ है वह भी घट जाए। अपनी कंफर्ट जोन में बने रहें, और साथ ही साथ वेदांत भी घट जाए; यह नहीं हो सकता है।
३) बूझ बूझ पंडित मन चित लाय,
कबहिं भरलि बहै कबहिं सुखाय।
यह जो मन है कभी भरा हुआ दिखता है और कभी एकदम सूख जाता है, जैसे एक बरसाती नदी। किसी ने सलाम ठोक दिया तो फूल गए, और किसी ने नजर फेर ली तो एकदम से सुख गए। मन में थोड़ा सा सही, थोड़ा सा गलत, ऐसा कुछ भी नहीं है, यह पूरा का पूरा भूलावा है एक झांसे के जैसा है। मन के आधार पर जो भी जिया जा रहा है, वह एक बड़ा धोखा है, चाहे वह आपका ईश्वर हो, या चाहे वह आपका शैतान हो। पाप ही झांसा नहीं है, पुण्य भी झांसा है।
४) खन ऊबै खन डूबै खन औगाह,
रतन न मिलै पावै नहिं थाह।
यह मन क्षण भर में डूब जाता है और क्षण भर में ऊब जाता है, कोई गहराई नहीं मिल पाती है। यह जो मन की नदी है इससे कभी आप ऊब जाते हैं, पूरा जीवन असार लगने लगता है, और कभी पूरे डूब जाते हैं कि पता ही नहीं चल रहा है कि क्या हो रहा है, और कभी-कभी विवेक जाग जाता है। कभी राग हो जाता है, कभी वैराग्य हो जाता है, और कभी-कभी विवेक जाग जाता है। औगाह का मतलब टटोलना, तलाशना, खंगालना। बाहर कुछ भी असार नहीं है, यह पेड़, प्रकृति, यह जीवित व्यक्ति, यह सब असार नहीं हैं; पर मेरे अंदर जो जीवित व्यक्ति के बारे में धारणा है, वह असार है।
यह जो अनगिनत संकल्प और विकल्प हैं, वह एक झांसा है, वह माया है, वह कुत्रिम है, जो हमने रचा है। इस कुत्रिम सोच विचार की नदी में कभी हम ऊब जाते हैं, कभी डूब जाते हैं, और कभी टटोलने लगते हैं कि इसमें सार क्या है? कोई कहता है कि पैसा कमा लो, या पुण्य कमा लो, तो जीवन का सार मिल जाएगा, अब आप टटोल रहे हैं, उसी मन से कि सार कहां छुपा हुआ है? जो भी चित्त से चल रहा है, चाहे वह सत्संग ही क्यों ना हो, वह भी उसमें शामिल है। अगर सत्संग तुरंत चित्त के पार नहीं ले जा पाए, तो समझ लीजिए वह एक झांसा है, फिर अब आप एक उम्दा किस्म की शराब पी रहे हैं।
कबीर साहब कहते हैं कि यहां कितना भी खंगाल लीजिए, ना यहां पर कोई रतन मिलता है, ना ही इस चित्त का कोई अता पता मिलता है। इससे मोह भंग हो जाता है, पर इसकी कोई थाह नहीं पाया है। यहां मन की योजनाओं में किसी को कभी कुछ नहीं मिलता है।
५) नदिया नहिं साँसरि बहै नीर,
मच्छ न मरै केवट रहै तीर।
यहां कोई नदी है नहीं, पर ऐसा लगता है कि झर झर करके पानी बह रहा है। नदी ही नहीं है, और पानी खूब बह रहा है। यानी मन के धरातल पर कोई जमीन है ही नहीं, और ऐसा लगता है कि बहुत कुछ हो रहा है। कबीर साहब आगाह कर रहे हैं कि यहां ना डुबिए, ना ऊबिए, ना यहां कुछ खंगालिये, बस जागिये, होश में आकर के देखिए, बुझिये। यहां प्रेमी, माता, पिता, पत्नी, पति, परिचित, अपरिचित आदि किसी से भी कोई संबंध है ही नहीं, और खेला खूब चल रहा है। सोच विचार का एक बहुत ही बड़ा झांसा है, और इसके प्रति एक गहरा सम्मोहन है, मोह है; कि यहां से भंग होना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है।
हम सोचते हैं कि जो दूसरे के बारे में मेरी छवि है वह वैसा ही है, या जो दूसरे के अंदर मैंने अपनी छवि छाप दी है, मैं वैसा ही हूं। दूसरे के अंदर अपनी छवि रखकर, और अपने अंदर दूसरे की छवि रखकर, इसमें जो एक झांसा खड़ा करते हैं, उसको हम समझते हैं कि वह संबंधित होना है; यह एक गहरा धोखा है, यह कोई संबंध है ही नहीं। जीवन भर यही चलता है, खूब छवियां बनाते रहते हैं, खूब लहरें आती जाती रहती हैं, पर होता कुछ नहीं है। हमें संबंधित होने का शउर ही नहीं है। कबीर साहब इसी झांसे से हमें दूर करने की कोशिश कर रहे हैं, कि जागो, जो यह सर सर करके नदी बह रही है, वहां कोई पानी नहीं है, यह एक धोखा है।
एक भी मछली पकड़ में नहीं आती, और मछुआरा जीवन भर मुंह ताकता हुआ बैठा रहता है। कौन यहां से कुछ भी लेकर के जा पाया है, क्या कोई, एक भी मछली कभी पकड़ पाया है? पर जिंदगी भर हमारा मुंह इसी चित्त के ही ऊपर लगा रहता है कि अभी पकड़ आई मछली। मन क्या पकड़ सकता है, हाथ में कुछ नहीं आता है; और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि वह कौन है जो पकड़ने जा रहा है? पकड़ने वाले और जो पकड़ा जा रहा है, उनके बीच में जो पकड़ पैदा होती है, वह एक बड़ा धोखा है। मछुआरा मन की नदी के सामने खड़ा है, पर एक भी मछली नहीं पकड़ में आती; सारी उम्र किनारे पर खड़े हुए बीत जाती है।
कबीर साहब हमको जगा रहे हैं कि जिस तरफ देख रहे हो, वह जीवन नहीं है, ऐसा नहीं है कि अब आप कबीर साहब की ही गाथा गाने लगिए। यह नहीं की क्या अद्भुत बात कही है, अब इस पर योजना बनाएंगे, अब इसको लागू करेंगे, तो निश्चित ही डूबेंगे। कृष्णमूर्ति एक बात कहते थे कि शैतान ने अपने साथी से कहा कि मैं उसको सुझाव देने जा रहा हूं कि तुम्हें अब सत्य तो मिल गया है, अब इसको कैसे पकड़ कर या संगठित करके रखोगे, इसको कैसे अपना बना कर रखोगे, कैसे दूसरों को दोगे। जैसे ही वो उसको व्यवस्थित करने में लगेगा, तो वो फिर मेरे चंगुल में फंस जायेगा।
यदि कबीर साहब को सुनते ही हमारा मोह तत्क्ष्ण ही उस ओर नहीं मुड़ गया, जहां चित्त नहीं है, ठीक वहीं कबीर साहब बैठे हैं। कबीर साहब मरे नहीं हैं, कबीर साहब जैसा व्यक्ति मर कैसे सकता है। जिसे हमने जीवन समझा है, वह जीवन है ही नहीं, जिस तरफ कबीर साहब इशारा कर रहे हैं, वहां जीवन मृत्यु जैसा कुछ है ही नहीं। आप मछली पकड़ने के लिए जिस तरफ जीवन भर खड़े हो, वहां कभी किसी को कुछ नहीं मिला है, और ना ही मिल सकता है। इस झांसे से बिना किसी शक या सवाल के, एकदम से यू टर्न ले लीजिए, जहां चित्त है ही नहीं। सारा जोर कबीर साहब का इसी तरह है।
६) पोहकर नहिं बाँधल तहाँ घाट,
पुरइनि नाहिं कँवल महँ बाट।
पोहकर यानी तालाब। तालाब कहीं नहीं है और घाट बनाए बैठे हुए हैं हम। एक घाट बनाकर के बैठें हैं हम कि कोई आकर के हमें सम्मानित कर दे, कोई हमारा अपमान ना करे। एक स्टेटस, जगह, स्थान बना कर रखा हुआ है, जिसके आगे हम किसी को घुसने नहीं देते हैं, और जिससे आप खुद भी बाहर नहीं जाते हैं। अंदर जीवन का कुछ अता पता है नहीं, और बाहर घाट बनाए बैठे हैं कि सभी सम्मान, समृद्धि, पुरस्कार मुझे मिलने चाहिए; लेकिन वह कौन है जिसे ये मिलने चाहिए, वह है भी की नहीं है, उसका पता ही नहीं किया गया। तालाब है ही नहीं, पर घाट सब बनाए बैठे हैं, कोई अकड़ा बैठा है, कोई झुका बैठा है; पर पीछे कुछ है ही नहीं। ऐसा समझते ही वो तुरंत ही उस तरफ छलांग लगा देता है, जिस तरफ कबीर साहब हैं।
पुरइनि एक जंगली साधारण सी घास होती है। इस चित्त से जहां एक साधारण सी घास भी नहीं उग सकती है, वहां आप कमल के फूल की बाट जोह रहे हो, उम्मीद या चाह कर रहे हैं। ऐसा कभी नहीं हो सकता है, एस धम्मो संन्तनो, यही सनातन धर्म है। चित्त या मन से कभी भी सुख नहीं मिल सकता है; यह बात जितनी जल्दी, जितनी गहराई से, समझ में आ जाए उतना शुभ है। जहां जंगली घास भी नहीं आ सकती है, वहां से आप जन्मों जन्मों से कमल के फूल के उगने की प्रतीक्षा लगाए बैठे हैं।
७) कहहिं कबीर यह मन का धोख,
बैठा रहै चला चहै चोख
कबीर साहब कहते हैं यह मन ही धोखा है, जिसके किनारे आप कमल की बाट जोह रहे हैं, जिसके किनारे खड़े होकर आप मछली पकड़ना चाहते हैं। इस मन के माध्यम से ना आज तक किसी को कुछ मिला है, ना मिल रहा है, और ना ही कभी कुछ मिल सकता है; कुछ भी मिलने का जो आभास है, वह एक बड़ा धोखा है। कबीर साहब कुछ भी पकड़ने या छोड़ने की बात नहीं कर रहे हैं, वो सीधे यू टर्न या छलांग की बात कर रहे हैं।
यहां इस मन से उम्मीद रखना ऐसे ही है, जैसे बैठे हुए हैं, तिल भर भी हिलना नहीं चाहते हैं, और चाहते हैं कि जीवन की गति श्रेष्ठतम हो जाए, सबसे चोखी हो जाए; यही हम सबकी भी स्थिति है।
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