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बासी भात - कबीर उलटवासी का मर्म (अरण्यगीत) - धर्मराज



बासी भात।

 

१) माई मोर मानुसा अतीरे सुजान,

धन्धा कुटिकुटी करत बिहान।

 

बड़ी भोर उठी आँगन बाङू,

बड़ो खाँच ले गोबर काङू।

 

बासी भात मानुसे लिहल खाय,

बड़ो छैल लिये पानी को जाय।

 

अपने सैंया की मैं बाँधूंगी पाट,

लै बेचूँगी हाटोहाट।

 

कहहि कबीर ये हरि के काज,

जोइया के ढिग रही कौनि लाज।

 

२) इस पद में कबीर साहब ने जो ध्यान की कीमिया है, वह सुरती, जिसे वह ज्ञान भी कहते हैं उस पर बल दिया है। वह अज्ञेय जिससे वह कला उनको मिलाने वाली है जिसके लिए वह तड़प रहे हैं, उसको उन्होंने अपना पति बना लिया है। इस रूपक में, एक युवती जो पहली बार शादी होने के बाद, अपने घर वापस आई है, तो पूछे जाने पर अपने ससुराल का बयान कर रही है।

 

माई मोर मानुसा अतीरे सुजान,

धन्धा कुटिकुटी करत बिहान।

 

कबीर साहब इस रूपक के माध्यम से कह रहे हैं कि मेरा जो पति है, मेरा जो स्वामी है, वह बहुत ही सयाना, सज्जन है। वह खुद ही धान कूटता है और इस तरह से कूटता है की  कूटते कूटते सवेरा हो जाता है। जो काम मेरा है वह मुझे नहीं करना पड़ता, मेरा पति बहुत प्रेम करने वाला है।

 

बड़ी भोर उठी आँगन बाङू,

बड़ो खाँच ले गोबर काङू।

 

सुबह-सुबह उठकर के वह आंगन को साफ कर देता है, और जो गोबर, कूड़ा कचरा है, उसको उठा करके दूर फेंक आता है।

 

बासी भात मानुसे लिहल खाय,

बड़ो छैल लिये पानी को जाय।

 

मेरा पति मुझसे कोई अपेक्षा नहीं करता, और रात का जो बचा हुआ बासी भात है, वही सुबह भी बड़े चाव से, मन से खा लेता है। मेरा पति ही जाकर के खूब बड़े से घड़े में भरकर के पानी भी ले आता है।

 

अपने सैंया की मैं बाँधूंगी पाट,

लै बेचूँगी हाटोहाट।

 

मेरा सैंया इतना अच्छा है कि मैं उसको अपने पल्लू में गांठ से बांध करके रखूंगी। और वह इतना मूल्यवान है कि मैं उसके साथ किसी भी बाजार में जाऊंगी, तो मुझे जो भी चाहिए वह मिल जाएगा। उसे मैं जितना भी खर्च करती रहूंगी, वह समाप्त नहीं होगा।

 

कहहि कबीर ये हरि के काज,

जोइया के ढिग रही कौनि लाज।

 

कबीर साहब कहते हैं कि ऐसी कीमिया, ऐसा स्वामी यदि मिल गया है, तो वह बड़े आसानी से ही हरि का कार्य कर रहा है। यानी जो परम सौभाग्य है जिसे हम मोक्ष या निर्वाण कहते हैं, उस हरि के कार्य को वह सहज ही पूरा कर देता है। ऐसी स्त्री को फिर कोई संकोच नहीं है, वह इस मृत्यु लोक में फिर बेधड़क रहती है।

 

३) जोइया के ढिग रही कौनि लाज - हम यहां बहुत डरे सहमे जीते हैं कि कहीं जिसको हमने जीवन समझा है वह कोई धोखा तो नहीं है। हम गहरे में जानते हैं कि जो हम चालें चल रहे हैं, जो कुटिलता है, वह जीवन नहीं है। हम बातें बड़ी-बड़ी करते हैं पर असल जिंदगी कुछ और ही गाथा गाती है। हर व्यक्ति के अंदर लाज है, एक तरह से शर्म है, क्योंकि जो असल है, वैसा सम्यक जीवन वह नहीं जी रहा है।

 

आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। यानी करना कुछ था और करने कुछ और लग गए।

 

अब ऐसी कीमिया, ऐसे स्वामी को पा करके कोई लाज नहीं रह गई, कोई संकोच नहीं रह गई; तब जाकर असल जीवन घटता है।

 

४) साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।

 

इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है, जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।

 

ये कला, यानी मेरा स्वामी बहुत अद्भुत है, की जो छिलका है उसको बिना मेरे प्रयास के, जो मूल है उससे अलग कर देता है। हम समझते हैं की हम बुद्धि का इस्तेमाल करके अच्छे बुरे का निर्धारण करके जीवन जीते हैं। पर यह युवती कहती है कि मेरा यह काम भी मेरा स्वामी कर देता है। स्वामी का अर्थ है कि सुरती, ध्यान, होश, जागरण की कला, विवेक, तथ्य के साथ बिना छेड़छाड़ के रहना, या जो भी है उसको बिना हस्तक्षेप किए उपस्थिति को अवसर देना। बिना मेरे कुछ किए, यह कला सार को ग्रहण कर लेती है और असार को उड़ा देती है, और इस तरह से अलग किया जाता है कि भोर हो जाती है, यानी रात्रि समाप्त हो जाती है।

 

यह जो ज्ञान को अवसर देने की कला है, वही सुरती है, वही मेरा स्वामी है, जो मुझे अब कुछ करने ही नहीं देता है। मैंने बस उस कला को जीवन में उतरने का अवसर भर दिया है। यह जो जागरण को अवसर देने की कला है, वही जीवन में जो भी व्यर्थ है उसको दूर कर देती है। वो कला है यथाभूत दर्शन, यानी जो कुछ भी है उसके साथ बिना छेड़छाड़ किए उपस्थिति। उस कला में संस्कार ग्रस्त बुद्धि, सोच विचार की कोई भूमिका नहीं है।

 

जब से मैं उस ध्यान के स्वामी से सुहागन हुई हूं, तबसे मुझे कुछ नहीं करना पड़ता है। उस ध्यान या जागरण को मिला हुआ अवसर, धान से चावल और भूसी को सहज ही अलग कर देता है। किसी भी निरर्थक भावना में फंसी हुई ऊर्जा अपनी सम्यक धाराओं में बहने लगती है। जब सही समझ उतरी तो भोर या सुबह हो जाती है, एक पूरे नूतन जीवन का वहां पर अवतरण पाया जाता है।

 

५) धन्धा कुटिकुटी करत बिहान - जब जागरण के आलोक की भोर होती है तो उस प्रकाश में जितना भी कूड़ा कचरा, मूढ़ता के गोबर को हमने इकट्ठा किया है, वह आलोक जीवन के आंगन को, जहां जीवन घट रहा है, उसको निर्मल, स्वच्छ कर देता है। जब ऐसा आग्रह है कि आपके अंदर की संस्थाएं ही जीवन हैं, किसी ऐसी चीज से आप बंधे हुए हैं जिसके पार आप नहीं देख पाते हैं, जैसे परिवार, धर्म, जाति, धन ही समृद्धि है, आदि यह एक तरह की गोबर है। क्षण प्रतिक्षण जैसे ही कोई चुनौती, या विचार की तरंग आती है, वह आलोक वहां पर झाड़ू लगा देता है, जो धोखा है उस धोखे को वह पोंछ देता है। वह जागरण की कीमिया, मलता को धोकर के निर्मलता को अवसर दे देती है।

 

बासी भात मानुसे लिहल खाय - यह बिना चुनाव के जागरण, निर्विकल्प जागरण, चॉइसलेस अवेयरनेस, की तरफ उनका इशारा है। बिना टीका टिप्पणी या बिना उसमें मीन मेक निकाले, जो अखाद्य है, उसको भी खा लिया, वह कुछ नहीं कहता। मैं समझता था कि यह मेरा काम है कि इससे जुडूं या टूटूं, पर जैसे ही स्वामी ने जीवन की बागडोर संभाली है, मैं निर्विकल्प चुनाव रहित हो गई हूं। जो भी प्रस्तुत है, जीवन जैसा है वैसा ही निर्विकल्प स्वीकार है। इस जागरण में जो बासी है, वह भी उतना ही स्वीकृत है जितना जो की ताजा है।

 

यह जो निर्विकल्प स्वीकार है, यह हरि का काज है, यह परम सत्य का द्वार खोलने वाला काज है। जब जीवन में कोई चुनाव नहीं रह जाता, जब बासी भात भी बड़े प्रेम से खा लिया जाता है, यह प्रतीक है कि जो है जैसा है वह वैसा ही स्वीकार है; तो वही हरि तक पहुंचने का साधन बन जाता है। वो युवती विभोर होकर कह रही है कि मैं बड़ी सौभाग्यशाली हूं कि ऐसे स्वामी से मेरा वरण हुआ है।

 

बड़ो छैल लिये पानी को जाय - पानी से आशय है प्राण का, जीवन का। जिस प्रेम या जीवन की छींटें भी मुझे उपलब्ध नहीं होती थीं, वहीं अब बड़े बड़े बर्तन में पानी रूपी प्रेम या जीवन उपलब्ध है। संबंधों में प्रेम की जो सहजता नहीं मिलती थी, जागरण को अवसर देने से, वही प्रेम अब अथाह रूप में बड़ने लगा है।

 

६) अपने सैंया की मैं बाँधूंगी पाट - इस कीमिया को अब सबसे सुरक्षित स्थान पर मैं रखी हूं।

 

मन मस्त हुआ तब क्यूँ बोले।

हीरा पायो गाँठ गठियायो, बार-बार बा को क्यूँ खोले।

 

जब कुछ अनमोल मिल जाए तो उसको सबसे सुरक्षित, सबसे पवित्र स्थान पर रखना चाहिए।

 

लै बेचूँगी हाटोहाट - इस कीमिया के माध्यम से, यह जो बाजार फैला हुआ है, उसमें जो भी व्यवहार सम्यक होगा, उसमें मैं उतर जाऊंगी। और मुझे यह बिल्कुल भी परवाह नहीं है कि इस दुनिया के बाजार में मैं ठग ली जाऊंगी, और ना ही मेरे पास कोई अभाव है, क्योंकि मेरे हाथ एक बहुत ही अनमोल कीमिया लग गई है। यानी जीवन के बाजार में जो सबसे सम्यक, श्रेयकर, शुभ है, उसको मैं सहज हासिल कर लूंगी।

 

कहहि कबीर ये हरि के काज - यह जो कीमिया है, या जो मेरा पति है, यह हरि का काम है, यह परम सत्य में ले जाने का माध्यम है। यह जागरण की गोद में जो मैंने अपने आप को समर्पित किया है, या जिस जागरण की गोद ने मुझे स्वीकार किया है, वह परम सत्य में डूब जाने का माध्यम है।

 

जोइया के ढिग रही कौनि लाज - जिस किसी को यह कीमिया उपलब्ध हो गई जीवन में, फिर वह निसंकोच, बेधड़क, बिना किसी दुविधा के जीता है। जब तक बुद्धि है, जब तक उसका ध्यान के स्वामी से वरण नहीं हुआ है, तब तक संकोच, धोखा, भटकाव, झांसा बना ही रहेगा। जब ध्यान के स्वामी से वरण हो जाता है, उस कीमिया का जीवन में अवतरण हो जाता है, तो सब कुछ शुभ जीवन में फैलता चला जाता है।


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