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खुद बदलाव बने (be the change) | सप्ताहंत संवाद

Ashwin



हमारे जीवन में भटकाव क्यों है?


हज़ार खिज्र पैदा कर चुकी नस्ल आदम की,

यह सब तस्लीम, आदमी फिर भी भटकता है।


आख़िर क्या कारण है कि, इतना सही रास्ते का ज्ञान होने के बावजूद, इतने रहनुमाओं के बावजूद हम इंसान अब भी भटक रहे हैं। दूसरा कोई जिसे हम नहीं चाहते हैं उसको दुखी देखकर के हमें खुशी मिलती है, यह एक मनोरोग है। हम शुभ को उपलब्ध नहीं हो पाते क्योंकि उसमें कुछ बाधाएं हैं।


- पहली बाधा है दूसरे की तरफ देखना। रास्ता साफ है फिर भी उस पर नहीं चल पाने का पहला मुख्य कारण है, दूसरे की तरफ देखना। जब हम कुछ सीख करके आते हैं, तो उससे अपनी नहीं, पर दूसरे की जांच करते हैं। सब संतो ने कहा कि अपनी तरफ देखो, हम दूसरे को देख करके कहते हैं कि देखो वह अपनी तरफ नहीं देख रहा है। दूसरे की तरफ देखने में ही मेरी नमाज, पूजा वहीं खंडित हो जा रही है। यदि दूसरे की तरफ दृष्टि है, तो सब कुछ जानते हुए भी अंतहीन भटकन है। दूसरे की तरफ देखने से हमारी ही पूजा खंडित हो रही है, इस बात का हमें खुद ही नहीं पता है।


- दूसरी बाधा है ज्ञात में निष्ठा का होना। एक व्यक्ति हर दिन धुले हुए बर्तनों को धो करके फिर से वहीं रख देता था। जब उनसे पूछा गया कि इसका क्या मतलब है, तो उन्होंने कहा वही जो ध्यान का मतलब है। ध्यान का कोई निष्कर्ष, कोई लक्ष्य, कोई कारण नहीं है; जागते चलना ही जीवन का निष्कर्ष है। कहीं पहुंचना नहीं है जो कुछ भी घट रहा है, वहीं जागरण को अवसर दिए जाना, यही ध्यान है। अपनी बनावट को देखना, धोना, पोंछना, और फिर रख देना, यही क्रम जीवन है।


जो हमने सोच समझ कर के रखा हुआ है, उसके अनुसार जीवन को तय करना, कि ऐसा हो जाए, यह दूसरी सबसे बड़ी बाधा है। ज्ञात के आधार पर यह कामना करना कि इससे क्या मिलेगा। बहुत सारा ज्ञान इकट्ठा करके हमारे अंदर एक सुनिश्चित पैमाना बन जाता है कि ऐसा ऐसा करने से यह हो जाएगा। यदि जीवन हम सम्यक तरीके से जी रहे हैं, तो उसमें अगला कदम क्या होगा उसका हमें भी नहीं पता चलेगा। हम जीवन का ताजे ढंग से सामना ही नहीं करते हैं।


हम उस पथ पर गमन करते हैं, जो हमने पहले से बना रखे हैं। हमारा धंधा और धर्म दोनों एक साथ चलते रहते हैं। कबीर साहब कहते हैं दुविधा में दोनों गए, माया मिली ना राम। माया और राम अलग अलग नहीं हैं, राम को जानना है, तो माया को पढ़ना पड़ेगा; राम वहीं पर व्याप्त हैं, जहां पर माया है। हमें किसी भी प्रारूप से बचकर के चलना चाहिए, जैसे हमेशा ताजा नया मांजा हुआ कोई बर्तन हो।


- तीसरी बाधा है टरकाना। हम समझते हैं कि हमारे पास समय है, आज नहीं कल देख लेंगे। हम समझते हैं कि अभी तो मान, प्रतिष्ठा कमा लें, बाद में अध्यात्म की तरफ रुख कर लेंगे, पर हम यह भूल जाते हैं हैं कि जो ढर्रा दुखकारी है, वह निरंतर बड़ा हो रहा है। बुढ़ापे तक आते-आते हमारे पास बहुत सारे दावे होते हैं, पर अंदर खोखलापन रह जाता है। बुद्ध ने यह कहा था कि हमारी सबसे बड़ी समस्या है कि हम समझते हैं कि हमारे पास बहुत समय है। जिसको हम जीवन में सही समझ रहे हैं, वह ठीक उसके विपरीत से जुड़ा हुआ है।


हम समझते हैं कि अभी मौज कर लें, और जो उसका खामियाना बाद में भुगतना पड़ेगा, वह उससे भिन्न है, यह बड़ा भ्रम है। आंकड़ों पर आधारित प्रेम, जब घृणा में बदलता है, तो हम अस्त पस्त हो जाते हैं। जिसको देखकर क्षीण होना चाहिए वह बलवान हो रहा है, और जिसको अवसर देकर बलवान होना चाहिए वह निरंतर क्षीण होता जा रहा है।


जिस बदलाव को हम चाहते हैं, उस बदलाव का निपट यहीं और अभी, घटना होना चाहिए। यदि मैं दूसरे की तरफ देख रहा हूं, तो मैं बदलाव की कामना दूसरे में कर रहा हूं, फिर मैं स्वयं बदलाव नहीं हूं। जो भी सम्यक है, वह हमारे खुद के जीवन में सिद्ध होना होगा। यह उन संत का अपमान है कि हम नाम उनका लेते हैं, पर उनकी शिक्षा को अपने जीवन में करके नहीं दिखाते हैं। अकसर हम पाते हैं कि जो वास्तव में सुनता है, उसका धीरे-धीरे सबसे मतलब खत्म सा होने लगता है, वह सबको सुनता है, पर साथ ही साथ, अपनी तरफ देख भी रहा होता है। ऐसा नहीं है कि वो माकूल जवाब नहीं जानता है, पर दे नहीं रहा है, क्योंकि वो अपनी तरफ देख रहा है।


हो सकता है कि मैं चूक रहा हूं और दूसरे का संदर्भ ले रहा हूं, पर आप तो मत चूकिए। निर्विकल्प जागरण या निर्विकल्प स्वीकार को हम अपने जीवन में सिद्ध करके दिखाएं, दूसरे के जीवन से इसका कोई सरोकार नहीं है। यदि कोई हमारे जीवन में हस्तक्षेप करता है, तो देखिए कि उसके हस्तक्षेप करने से हमारे भीतर क्या हो रहा है? ना की हम उसके उकसाने पर उसके जीवन में हस्तक्षेप करना शुरू कर दें। समय को आधार नहीं बनाना चाहिए, अभी जो जीवन जैसा प्रकट है, उसी में होश को अवसर दे देना चाहिए।


अपनी तरफ नजर होना, किसी भी प्रारूप से या ज्ञात से निष्ठा का अभाव का होना, और समय को जीवन का आधार नहीं बनाना; यदि इतनी बात स्पष्ट है, तो फिर कोई भटकाव होने की संभावना ही नहीं है।


इंसान और कृत्रिम बुद्धिमत्ता।


प्रश्न - मेरा जीवन चुनाव रहित होना कैसे संभव है?


जब हम कहते हैं, मेरा जीवन तो क्या जीवन हमारा है। जो भी कुछ हम चुनते हैं, वह विचार प्रक्रिया के पैदा होने के बाद की बात होती है। प्रेम करने की क्षमता क्या हमने आपने पैदा करी है, या वह हमको पहले से ही मिली हुई है। रेल के डब्बे के अंदर जो हम थोड़ा बहुत चल सकते हैं, क्या हम उसको यात्रा कह सकते हैं। जीवन शरीर है, जो प्रकृति से मिला हुआ है, जीवन विचार करने का सामर्थ्य है, जो हमें पहले से ही मिला हुआ है। एक गलत सोच विचार की प्रक्रिया का उत्पाद मैं खुद हूं, और फिर मैं कहता हूं कि मैं ही तो चुन रहा हूं।


यह चुनाव किस धरातल पर हो रहा है, और हमारे आपके पास कुछ भी चुनाव करने का आधार क्या है। क्या हमारा कोई भी चुनाव आंकड़ों के आधार पर नहीं होता है। हम विचार पैदा करते हैं, और हमारे द्वारा पैदा किए हुए विचार हमें निर्मित करते हैं। वास्तव में हमारे चुनाव करने का कोई मोल नहीं है। चुनाव करने वाले की सीमा देखकर के, चुनाव रहित सजगता अपने आप जगह पाती है।


इंसान और कृत्रिम बुद्धिमत्ता में क्या अंतर है?


केवल एक ही अंतर है, इंसान चुनाव रहित जागरण को अवसर दे सकता है, और उसके बाद भी जीवन बचा रह सकता है। खाली समझने के लिए कहा जा रहा है कि यदि कृत्रिम बुद्धिमत्ता चुनाव रहित जागरण को अवसर देती है, तो उसका अंत हो जाएगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता संकलित आंकड़ों और अनुभवों पर ही चल सकती है। जीवन आंकड़ों से पैदा नहीं होता है। वह जो आंकड़ों से मुक्त है, वह अभी और यहीं पर उपस्थित है। इंसान बिना आंकड़ों के भी जीवित रह सकता है। इंसान सापेक्षिक जागरूकता की व्यर्थता को देख सकता है, और निरपेक्ष जागरण को अवसर दे सकता है।


अकेलापन कचोटता है, क्या करें?


प्रश्न - भय से मुक्ति कैसे मिले?


भय किस दीवार पर आकर के टिक रहा है, उसकी तरफ जागें, तो हम पाएंगे ऐसी कोई दीवार नहीं है वहां पर। जब उधर कोई दीवार नहीं मिलती है, तो यहां भी भय समाप्त हो जाता है।


प्रश्न - अकेलापन कचोटता है, क्या करें?


जो पहला तथ्य घट रहा है उसको बदलें नहीं, उसके साथ रहें, उसको किसी व्यस्तता से ढकें मत, उसको वैसा ही नग्न रहने दें। उसको कचोट नाम ना दें, क्योंकि फिर वो बहुत सारी स्मृति से उसे जोड़ देता है। उसे बिना निंदा या स्तुति के देखने मात्र से ही कचोट समाप्त हो जाती है, इसको स्वयं करके देखें। फिर अकेलापन बचा रह सकता है, जो कचोटता नहीं है, या वहां कुछ और है जो जीवन का मूल है। यदि हम उसकी व्याख्या करने जाएंगे, तो हम फिर से भटक जाएंगे, तो हम फिर एक नया प्रारूप तैयार कर लेंगे।


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