एक अभिनेत्री जो जीवन में बहुत कुछ पा चुकी थी, एक झेन मास्टर के पास गई और उनसे कहा कि मैं फिर से कुछ नहीं हो जाना चाहती हूं। कोई भी व्यक्ति जिसके अंदर थोड़ा सा भी विवेक जागा है, वह यह देख लेता है कि यहां कुछ भी 'होना' आत्मघात है।
जीवन की दो डगर हैं। एक डगर है कि मैं सफल हो जाऊं, मैं कुछ बन जाऊं। और दूसरी डगर है जो जीवन मिला ही हुआ है, वो सफल हो जाए। एक डगर है कि हम आनंदित हो जाएं, और दूसरी डगर है कि जीवन आनंदित हो जाए।
अष्टावक्र जनक को निरंतर एक ही बात कहते हैं कि तू पहले से ही मुक्त है, तू पहले से ही बोध को उपलब्ध है। तेरा एकमात्र बंधन है कि तू समाधि का आयोजन करता है, जबकि जीवन उपलब्ध ही है।
सुख को यदि हम किसी माध्यम से हासिल करना चाहते हैं, तो फिर हम माध्यम ही बढ़ाते जायेंगे। दूसरा तरीका है कि सीधे ही सुख जीवन में उतरे, बिना माध्यम के। बिना माध्यम के ही सच्चा सुख जीवन में उतर सकता है। अन्यथा माध्यम में गति शुरू हो जाती है और जिस चीज के लिए वह माध्यम है, वह बात गौण हो जाती है। चित्त का यह नियम है कि जो भी उसमें बोया जाता है, वह फलने फूलने लगता है, तो यदि माध्यम बोया तो वही फलने फूलने लगेगा।
पैसा बहुत हो जाता है पर अंदर की दरिद्रता समाप्त नहीं होती, रिश्ते नाते बहुत हो जाते हैं पर जीवन में जुड़ाव नहीं होता। धर्म यानी वह जो उपलब्ध ही है, उसका बिना किसी माध्यम के स्वाद लेने की कला। लाउत्से कहते हैं कि मैं वहां बैठता हूं जहां लोग जूते उतारते हैं, क्योंकि जहां पर आतन्यतिक रूप से मैं असफल है, वहां पर जो भी जीवन में घटता है, वह सफल घटता है।
अगर मैं जीवन में अपनी निजी सफलता की कामना से मुक्त हूं, तो जहां भी जीवन मुझे रखेगा मैं वहीं राजी रहूंगा, क्योंकि मुझे कहीं पहुंचना ही नहीं है। जहां हूं जैसा हूं वहीं आनंदित हूं, आनंद तब छूटता है जब हम कहीं जाने का प्रयास करते हैं। जो सहज आनंद है, कहीं जाने की चेष्टा में आप उसे खो देते हैं। यदि आप जहां पर भी हैं उसमें तुष्ट हैं, तो बेशक आप असफल हो सकते हैं, पर जीवन सफल है। माध्यम और मैं, एक ही चीज के दो नाम हैं, या तो माध्यम बढ़ा लीजिए, या फिर जीवन से बिना माध्यम के जुड़ जाइए। जो असल जीवन है, वह मन के द्वारा निर्मित क्लोनिंग से मुक्त है।
जो भी आप बिना विचार के, बिना मन के हस्तक्षेप के सुनते हैं, वो तत्क्षण जीवन में व्याप्त हो जाता है। हम समझते हैं कि सुख किसी माध्यम, स्त्री, पुरुष, धन से आता है। मन यह समझ नहीं पाता है कि जो सुख पहले से ही उपलब्ध है, वह सुख किसी माध्यम के आने से दूर हो जाता है। माध्यम से शुभता दूर हो जाती है।
जैसे ही किसी भी चीज को हम व्यवस्थित करना शुरू कर देते हैं जो जीवन के धरातल पर है, हम जीवन से दूर होने लगते हैं। सत्य को व्यवस्थित नहीं किया जा सकता है, इसलिए यदि आप सत्य की व्यवस्थित कर रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि आप झूठ को अवसर दे रहे हैं। जीवन के धरातल पर कुछ भी करने का हमारा प्रयास, हमें उस धरातल से दूर कर देता है।
आप यदि समझ जाएंगे की माध्यम ही मैं या अहंकार है, तो सीधे सीधे जीवन में डुबकी लग जाती है। असंभव प्रश्न, माध्यम को बीच से हटा देता है। क्या कोई जीना ऐसा है जो मेरी भूमिका से मुक्त है? इस प्रश्न के साथ जीवन में सीधे डुबकी लग सकती है। क्या कोई जीना ऐसा है, जो इस माध्यम के द्वारा आयोजित करके नहीं बनाया गया है?
हमें ये भ्रम है कि जब मैं कुछ करुंगा, तो ही यह जीवन आगे बढ़ेगा, यह बात हमने बार-बार दोहराई है। प्रश्न उठाइए और वहीं टिके रहिए, तो बात बिल्कुल साफ हो जाएगी। आप पाएंगे की जीवन और संबंध प्रचुर मात्रा में पहले से ही उपलब्ध है। एक बार यह पता चल गया कि बिना माध्यम के भी संबंध होता है, तो वह बड़ा अलौकिक संबंध होता है। फिर आप किसी का शोषण नहीं करते, किसी पर निर्भर नहीं हैं, और ना किसी अन्य को अपने ऊपर निर्भर बनाते हैं। जैसे झील के किनारे खड़े हुए दो वृक्ष, साथ-साथ उगते हुए सूरज को देख रहे हों। दोनों एक दूसरे पर निर्भर नहीं हैं, पर साथ-साथ देख रहे हैं, उसका एक अलग आनंद है।
यदि आप अपने अंदर आपूर हैं, तो भय, चिंता, वियोग, शोक या असुरक्षा नहीं होगी। यदि आप सीधे जीवन में डुबकी मार रहे हो, तो जो भी संग साथ है वह एक उत्सव मात्र है। जो आपके साथ उत्सव में शामिल हैं, यह उनकी मौज है, नहीं शामिल हैं तो कोई शिकवा नहीं है। जीवन में जो मिला सो मिला, एक कृतज्ञता है, तो जीवन में अलग ही गति है।
जब आप माध्यम पर आधारित जीवन जीने के मोह से मुक्त हो जाते हैं, तो जो भी मिला हुआ है वह भरपूर है, वह खंडित नहीं है, उसमें कृतज्ञता है। यह मैं का माध्यम ही है जो तय करता है कि मुझे ज्यादा मिलना चाहिए था, पर उतना मिला नहीं। जीवन का यह नियम है, यदि आप कृतज्ञ होते हैं, तो पात्र होते हैं।
राजा खुशी को किसी माध्यम से ढूंढ रहा है, जबकि फकीर कह रहा है कि जीवन अभी उपलब्ध ही है। यह दोनों ढंग बिल्कुल अलग-अलग हैं। हमें यह सीखना है कि निसर्ग में, ऋत में, बिना माध्यम के कैसे डुबकी लगाई जाए? जीवन बिना माध्यम के उपलब्ध है।
संबंध का वह धरातल खोजो जो इंसान की बुद्धि से नहीं बना है। और किसी अध्यात्म की जरूरत नहीं है, बस इतना जान लीजिए कि क्या बिना माध्यम के जीया जा सकता है? वह जीना क्या है जो बिना माध्यम के है? इसका कोई उत्तर नहीं आएगा, पर वहां बिना माध्यम के जीना घटने लगेगा।
एक गुरु ने कहा कि जब आश्रम में आग लगी थी, तो तुम लोग बाहर भागे, तब मैं अपने भीतर भागा। यह कौशल है कि कैसे सुख को सीधे जीवन में उतार लिया जाए, कैसे आनंद में सीधे डुबकी लग जाए। तो बाहर कोई आपके साथ बेशक अत्याचार भी कर रहा हो, आप भीतर चले जाओगे। बिना किसी माध्यम सीधे डुबकी लगाना, यह हमको सीखना है।
धन, मान, सम्मान या मैं का जो माध्यम है, उसकी आदत लगातार भीतर काम कर रही है, और जीवन छूट गया है। मैं ठोस हो गया है, और जीवन का कहीं अता पता ही नहीं है। लगातार मशीन, छवियां, सोच विचार चल रहे हैं, पर जीवन कहीं नहीं है। माध्यम बना हुआ है, और माध्यम रेत चबाने जैसा है। सीधे डुबकी लगाने की कला जीवन में प्रवेश हो गई, तो बात वहीं खत्म हो गई, उसकी अपनी एक गति, खुमारी है। वह आनंद, वह खुशी फिर छूटती नहीं है। बच्चों ने बिना माध्यम के जीवन में डुबकी मारी ही हुई है, उनसे कुछ सीखिए।
विचार ही मैं को बनाता है, और मैं ही विचार में निरंतरता प्रदान करता है, ये युगपथ घटना है। बिना माध्यम के जीना क्या है? इसी प्रश्न के साथ ठहरिए, यही बड़ा तप है। कोई भी काम करते हुए, असली तप आपके भीतर ही चलता है। जो आपके नजदीकी रिश्तेदार हैं, उनको देखिए कि उनके साथ बिना माध्यम के संबंध क्या है? क्या जिनको हम पति, पत्नी का संबंध मानते हैं, उनके साथ कोई ऐसा संबंध है, जो बिना माध्यम के है? इससे आपके अंदर एक अभिनव तरह का कौशल पैदा होना शुरू हो जाएगा।
Comentarios