यदि हम उसे कोई नाम नहीं दें, तो सूर्य का उगना और हमारा होना, एक अटूट घटना है।
वो जीना क्या है जो दूसरे कदम से मुक्त है? इसका कोई उत्तर नहीं आयेगा, यदि कोई उत्तर आया तो वह दूसरा कदम ही होगा। जब किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं रहती है, तो हमारी बहुत सारी ऊर्जा का अपव्यय बच जाता है।
हम पूछते हैं कि आप ध्यान की कोई आदर्श तरकीब बता दीजिए, हम उसका अनुगमन कर लेंगे, ऐसे ही तो हम जीवन जीते हैं। सतत जीवन को हमने सोच विचार में फ्रेम कर दिया है, एक ढर्रे में कैद कर दिया है। इस ढर्रे को बनाए रखना या इसको तोड़ने का प्रयास, दोनों एक ही बात हैं।
किसी ने प्रश्न पूछा कि ध्यान में क्या सोचना चाहिए? आचार्य ने उत्तर दिया, I never thought it. जब ध्यान में मेरी कोई भूमिका नहीं है, वहां से ध्यान शुरू होता है। यिन स्त्रायण चित्त है, यांग पुरुष चित्त है - आप इसमें से कुछ भी चुनेंगे, तो दूसरा आपको वहां से धक्का मार कर हटा देगा। विश्राम यिन ऊर्जा है, गतिविधि यांग ऊर्जा है।
यह लगातार चलने वाला घर्षण आभासीय है, पर हमारे अंदर असल जीवन जैसा भासता है। जो भी ऊर्जा सीमित से निर्धारित हो रही है, तो इसका अर्थ है कि वो असीमित से टूट गई है।
हमारी पूरी गाथा सीमित क्षेत्र में यिन यांग के रूप में, द्वैत में ही गतिविधि करती रहती है। इसकी एक क्लोनिंग बन गई है, यानी ये एक प्रतिकृति के रूप में काम करते हैं। जो अस्तित्व में काम कर रहा है, वो देश काल से परे है, इसलिए वो जीवंत है। जबकि जो क्लोनिंग या जीवन की प्रतिकृति में काम करता है, वो मरा ही हुआ है।
किसी भी चीज का सच मुक्त कर देता है। सूरज की किरणों से गर्मी मिलती है, वो गर्मी सीलन से मुक्त कर देती है, यह सत्यापित किया, सूरज की गर्मी शरीर पर महसूस करी, तो ये एक ज्ञान की अंतर्दृष्टि है।
पर जीवन और संबंध के संदर्भ में बात थोड़ा सा भिन्न है, उसमें हम सिर्फ दूसरा कदम ही उठा सकते हैं, क्योंकि हम प्रतिकृति निर्मित कर सकते हैं, हम असल जीवन नहीं जी सकते हैं। अंदर के क्रियाकलाप की पूरी गतिविधि में, पूर्ण अंतर्दृष्टि चाहिए, उसमें आंशिक दृष्टि काम नहीं करती है। मेरा द्वारा उठाया गया कोई भी कदम हमेशा जीवन के विपरीत ही होता है, इस अंतर्दृष्टि से जीवन में ध्यान उतर जायेगा, इससे सभी क्रियाओं पर प्रकाश फैल जाता है।
दर्शन पहला कदम है, जो कि मैं नहीं करता हूं। प्रथम कदम जीवंत है, जैसे सूरज की किरणों की गरमाहट पहला कदम है, उसका नामकरण दूसरा कदम है, जैसे ही ये कहा या सोचा जाता है कि "ये सूरज की रोशनी है", यह दूसरा कदम है। जिसको सुख या दुख हो रहा है वो दूसरा कदम है, ये बात ही भ्रामक है। जब इसमें एक पूरी अंतर्दृष्टि व्याप्त हो जायेगी कि मैं ही दूसरा कदम हूं, तो वो अंतर्दृष्टि सुख दुख को जड़ से उखाड़ देगी।
इस राज को गहरे में उतरने दीजिए कि मैं ही दोयम हूं। जीवन का जीना सेकंड हैंड नहीं हो सकता है, मैं का एहसास द्वितीय पुरुष है, सेकंड हैंड है, मैं का एहसास पहला कदम नहीं है।
इस स्पष्ट अंतर्दृष्टि से किसी भी बाहरी गुरु या आपके अंदर जो एक गुरु बैठा है, जो कहता है कि ऐसा करो ऐसा ना करो, उससे तत्क्षण मुक्ति मिल गई। ऊर्जा का नृत्य अभी भी है, वो हमारे होने की वजह से बस ढका हुआ है।
एक ही बात को बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता है, और बहुत तरीकों से कहा भी जा सकता है। जैसे तथागत कभी नहीं बोले और उनसे ज्यादा शायद ही कोई अध्यात्म पर बोला होगा। लाओस्ते ने कहा कि संत चुप रहकर भी अस्तित्व की भाषा में ही बोलता है। बुद्ध जो बोले वो अस्तित्व ही बोल रहा था।
क्या किसी बात को बिना मैं के सुनना संभव है? क्या मैं को हटाना कोई शर्त है? मैं का होना कारण प्रभाव पर निर्भर है। कहीं ऐसा तो नहीं हो की प्रेम हमने पूरा का पूरा खो दिया है, यानी हमने शुभ से शुभ चीज को बुद्धि से सीमित करना सीख लिया है।
बुद्धि से कैसे कोई भी संबंध बनाया जा सकता है? उपस्थिति को देखता है और दुश्चक्र से बाहर हो जाना है, सिर्फ हृदय पूर्वक बैठना, या उपस्थिति से, समर्पण से, दुश्चक्र से छूट जाते हैं।
किसी चीज को समझना भी दूसरा कदम है, सिर्फ सुना जाए, उसे ग्रहण किया जाए, और सुन कर के उसको छोड़ दिया जाए। जैसे आंतें तत्व सोख लेती हैं और बाकी चीजें छोड़ देती हैं।
लिसनिंग इज ए मिरेकल, ये बात दिख गई तो वो अंतर्दृष्टि बन गई, नहीं तो मैं अपनी ही किसी संस्कारित व्याख्या को ही एप्लाई कर रहा हूं। जब हम अपनी बुद्धि से कुछ प्रोसेस करते हैं, तो वो अंधविश्वास ही है, कोई संस्कारित बात ही है। यह अंतर्दृष्टि कि मैं सिर्फ दूसरा कदम उठा सकता हूं, इससे जो व्यर्थ होगा वो विवेक से, बिना किसी प्रयास के गिर जाएगा, और जो सार्थक होगा वो सहज ही आपके जीवन का हिस्सा बन जायेगा। यह सत्य ही आपको मुक्त कर देगा।
हम जो भी हैं, जो दूसरा कदम हम उठा रहे हैं, उससे मुक्त जीना क्या है?
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Ashu Shinghal
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