बिना पार के आर का होना क्या है? बिना पार के आर में उपस्थित रहना क्या है? बिना पार के आर का जीना क्या है?
पार का कोई भी दृष्टिकोण पैदा हुआ तो "या" पैदा हो जाएगा, एक रेखा खींच जाएगी। पार का कोई भी संदर्भ आर के लिए अपवित्र है। पार को बिल्कुल छोड़ देना, विकृति से कृति में उतर जाना है।
कृपया जीवन को जीना या संबंधित होना मत सिखाइए। सभी लक्ष्य हमारे आपके द्वारा तय किए जाते हैं, जो सीमित बुद्धि से ही आते हैं। ये ऐसे ही है कि सागर की एक बूंद सागर को सागर होना सिखा रही है।
बिना हस्तक्षेप यदि हम हो नहीं सकते हैं, तो हम जीवन की गहराई में उतर नहीं सकते हैं। हम समझते हैं कि हम जीवन को सिखा देंगे कि वो अमृत की तरफ कैसे दौड़ सकता है। जब हम जीवन के विधाता नहीं बनते हैं, तभी हम जीवन के विधाता बन जाते हैं।
वेताल पच्चीसी तत्व दर्शी के द्वारा रचा गया होगा। बेताल राजा से कहता है कि यदि तुमने रास्ते में कुछ भी बोला, तो मैं वापस पेड़ पर चला जाऊंगा। और यदि कहानी सुनने के बाद तुम्हें अंतिम उत्तर आ गया है, और नहीं देते हो, तो तुम्हारा सर टुकड़े टुकड़े हो जायेगा।
वेताल पच्चीसी में तेरहवीं कहानी है, जिसके अंत में राजा कहता है कि दोष गृह स्वामी का है। यह सुनते ही वेताल वापस पेड़ पर चला जाता है। जब हम कुछ कहते हैं तो ऐसा लगता है कि ऐसा ही है, यही अंतिम सत्य है।
यह प्रेत हमारा मन है, उसी मन के कोने में हम बने हुए हैं, एक न्यायाधीश के रूप में। जब हम कहते हैं कि ऐसा ही होना चाहिए, तो जीवन के ज्ञेय और अज्ञेय स्वरूप के बीच में हम प्रस्तुत हो गए। यह कृति पर विकृति का प्रक्षेपण है। यदि अज्ञेय सम्मुख है, तो शुभ है, तो कृति है, और हम बीच में आ गए, तो वही विकृति है।
राजा को मन के प्रति जागृति रखनी चाहिए थी, पर जैसे ही राजा ने निर्णय ले लिया कि यही सही है, तो राजा दोषी हो गया। क्या बिना निर्णय लिए, इस निर्णय को देखा जा सकता है। ऐसा मुझे दिख रहा है, पर यही सत्य है, ऐसा मैं नहीं कह सकता हूं।
पार की जैसे ही दृष्टि बनी, तो हमने निर्णय ले लिया, तिलस्म का आधार पार है। यदि हम नियंता नहीं हैं, तो ही हम नियंता हैं। नियंता जीवन है, तो हमारी भूमिका नहीं होते हुए भी हमारी पूरी भूमिका है। क्या नियंता वह नहीं है, जिसपर हम भासित होते हैं?
जो है उसका पता चलना, यह तर्क हीनता नहीं है, यह तर्क शून्यता है। बस उपस्थित होना और विसर्जित हो जाना। बुद्धि की अपनी सीमा देख लेना, निरपेक्ष को अवसर देना है। ऐसा है यह पता चलना, और ऐसा ही है ये आग्रह ना रहना। पार की संभावना का पता चलना और तत्क्षण उसका विसर्जन हो जाना।
क्या हम जिंदगी को जीना सिखाने के अपने आग्रह से मुक्त हो सकते हैं? क्या प्रकृति किसी की अभिकल्पना हो सकती है?
छवि का उपयोग तकनीकी क्षेत्र में हो सकता है, पर छवि जीवन के लिए आवश्यक नहीं है, यह समझ उत्पन्न होने से प्रेत अपने ही संस्कारों से खुद ही समाप्त हो जाता है।
जिंदगी को जीना सिखाने से मुक्त होकर के जीना क्या है? क्या अभी बिना किसी प्रयास या लक्ष्य के यह कौशल आप्लावित हो गया है?
Comments